अरविंद कुमार सिंह। अरविंद कुमार सिंह। हाल ही में बंबई हाईकोर्ट की एक पीठ ने फिल्म स्टार सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जुड़े मामले में राहत की मांग करने से जुड़ी याचिकाओं की सुनवाई के दौरान इस बात पर हैरानी जताई कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायमूर्ति दीपांकर दत्त और न्यायमूर्ति जीएस कुलकर्णी ने पूछा कि सरकार टीवी समाचारों का नियमन क्यों नहीं करती है। इस मामले में दायर याचिकाओं में सुशांत मामले के कवरेज में मीडिया को संयम बरतने की मांग भी की गई है। पीठ ने केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रलय को इस मामले में पक्षकार बनाते हुए उससे इस मुद्दे पर जवाब मांगा कि जिन मामलों का गंभीर असर हो सकता है, उनके प्रसारण पर सरकार कैसे नियंत्रण कर सकती है।

यह सवाल उस दौर में उठा है, जब कोरोना संकट ने मीडिया को बुरी तरह प्रभावित किया है। कोरोना महामारी के कवरेज से लेकर सुशांत के मसले तक और तमाम अन्य मुद्दों पर सवाल उठ रहे हैं। संसद की आइटी संबंधी स्थायी समिति मीडिया कवरेज के नैतिक मानदंड पर जांच कर रही है। भारतीय प्रेस परिषद, प्रसार भारती और सूचना एवं प्रसारण मंत्रलय को समिति ने बीच में तलब भी किया था। बहुत से पक्षों पर चर्चाएं हुई हैं। लेकिन इस मामले में असली सवाल यह है कि आखिर सरकार टीवी समाचारों का नियमन क्यों करे। बीते दो दशकों में भारत में मीडिया में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है। इसके पीछे बहुत कुछ भूमिका सूचना और संचार क्रांति की है। देश के दुर्गम हिस्सों तक टीवी, रेडियो, अखबार और मोबाइल से लेकर सोशल मीडिया पर समाचारों की पहुंच हो चुकी है। स्मार्टफोन तो हर पढ़े-लिखे व्यक्ति के हाथ में है, जिस पर अखबार से लेकर टीवी और खबरों के सारे साधन मौजूद हैं। जब टीवी चैनलों में होड़ मची थी, तो लगने लगा था कि अखबारों के सामने संकट आ रहा है। लेकिन सदियों की विश्वसनीयता और खबरों के विस्तार के नाते वे और ताकतवर बने व उनकी प्रसार संख्या निरंतर बढ़ती रही। संचार और सूचना क्रांति ने अगर टीवी को ताकत दी तो अखबारों को और ताकत दी व उसके विस्तार के काम को सरल कर दिया।

भारत में प्रिंट मीडिया का व्यवस्थित इतिहास दो सौ वर्षो से भी अधिक का है। लेकिन टीवी पत्रकारिता की उम्र अभी इस लिहाज से छोटी है। फिर भी बीते दो दशको में इसका बेतरतीब तरीके से आश्चर्यजनक विस्तार हुआ है। प्रिंट मीडिया में व्यावसायिक प्रतिबद्धता और पेशे की बुनियादी नैतिकता कायम रही, लेकिन टीवी पत्रकारिता में सबसे जल्दी खबर दिखाने और ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर बहुत कुछ ऐसा होता रहा, जिसकी समाज में आलोचना होती रही है। लेकिन उनके व्यापक विस्तार और पकड़ के बाद भी अखबारों का प्रसार लगातार बढ़ना यह बताता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरो में कुछ खामियां जरूर हैं और वे जनता के दिलों में वह जगह नहीं बना सके हैं, जो अखबारों ने बनाई।

हां, यह सही है कि अखबारों को मिलने वाला राजस्व कई हिस्सों में बंट गया। फिर भी अखबारों ने खुद को एक हद तक बचाए रखा, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बहुत सी घटनाओं को लेकर बार-बार सवाल खड़े हुए। यह सवाल भी पहली बार नहीं, कई बार उठा कि सरकार उनके समाचारों का नियमन क्यों नहीं करती है। लोकसभा में मार्च 2005 में सांसदों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बढ़ती अश्लीलता और अन्य सवालों पर लंबी चर्चा की, तो सरकार ने आश्वासन दिया कि जल्द ही एक स्वायत्त नियामक प्राधिकरण का गठन किया जाएगा। संसद के सदस्यों का कहना था कि खोजी पत्रकारिता के नाम पर टीवी समाचारों और विज्ञापनों में अश्लीलता की ऐसी भरमार हो गई है कि परिवार के साथ टीवी समाचार देखना भी मुश्किल हो गया है। लेकिन सरकार न तो इस पहल को आगे बढ़ा पाई, न ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अपने प्रयासों से कमियां दूर हो पाईं।

मीडिया खुद व्यापक मंथन के साथ आचार संहिता बनाए और उसका पालन भी हो, यह एक अच्छा विचार है, लेकिन इसे जमीन पर उतारना आसान नहीं है। दुनियाभर में आचार संहिताएं बनी हैं और भारत में भी इस बात पर आम राय है कि पत्रकारिता की अपनी लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। आजादी के बाद अखिल भारतीय संपादक सम्मेलन ने पहली बार 1950 में एक आचार संहिता स्वीकारने का फैसला किया था। बाद में कई पत्रकार संगठन आगे बढ़े। लेकिन पुरानी आचार संहिताएं आज के दौर में अर्थहीन हो चुकी हैं। फरवरी 2006 में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने वरिष्ठ पत्रकार अजीत भट्टाचार्जी के नेतृत्व में पत्रकारिता में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के लिए एक समिति गठित की थी, जिसने कहा था कि संपादकीय विभाग अपने साथियों के लिए आचार संहिता लागू करे।

इससे पहले भारतीय प्रेस परिषद ने पत्रकारिता की आचार संहिता हेतु कुछ मापदंड निर्धारित किए थे, लेकिन इनकी परिधि अखबारों तक सीमित थी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को केबल टीवी नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम 1995 के तहत निर्धारित विज्ञापन संहिता और कार्यक्रम संहिता के प्रावधानों और उसके तहत बनाए गए नियमों का अनुपालन करने की हिदायत भर दी जाती है। हालांकि उसे सार्वजनिक सेवा प्रसारकों को छोड़ कर शायद ही कोई मानता हो। यह कहा जा सकता है कि टीवी समाचारों को प्रिंट की तुलना में अधिक आजादी हासिल है। इस आजादी का दुरुपयोग भी चैनल समय समय पर करते रहते हैं। पर सरकार अगर उनके समाचारों का नियमन करेगी, तो गारंटी नहीं कि तस्वीर बदल जाएगी। नियमन तो होना चाहिए, लेकिन स्वनियमन बेहतर होगा, क्योंकि सवाल उठ रहे हैं तो उनके पीछे कारण हैं। इस नाते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दिग्गजों को इस मामले में आगे बढ़ कर समुचित निर्णय लेना चाहिए।

[वरिष्ठ पत्रकार]