तरुण गुप्त। हम भारतीय अक्सर विरोधाभासी भावनाओं के द्वंद्व से जूझते हैं। हम इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं होते कि हम क्या चाहते हैं या फिर हमारे लिए क्या अच्छा है? हम इसे लेकर भी दुविधा में रहते हैं कि किस चीज के लिए प्रार्थना करें। मानसून के दौरान यह दुविधा अपनी पराकाष्ठा पर दिखती है। आखिर कोई इस हालात की कैसे व्याख्या कर सकता है। जब साल के कई महीने हम बारिश के लिए दुआ करते हैं और जब वर्षा होती है तो हम इतने परेशान हो जाते हैं कि कुछ सूझता ही नहीं। शायद इंद्र देव भी इस पर उतने ही अचंभित होते हों, जितने हम।

हमारे शहरी ढांचे की दयनीय दशा और उससे जुड़ी प्रशासनिक उदासीनता इतनी आम हो गई है कि इस पर अब किसी की त्योरियां नहीं चढ़तीं। जब भी लगता है कि आप सबसे बदतर हालात देख चुके हैं तभी उससे भी खराब स्थिति से दो-चार होना पड़ता है। ऐसा लगता है कि विभिन्न सरकारी महकमों में इसकी होड़ मची है कि कौन अक्षमता के मोर्चे पर कितना नीचे जा सकता है? पिछले कुछ दिनों की खबरों को देखकर तो कम से कम संवेदनशील नागरिकों को तो ऐसा ही महसूस होता है, भले ही ढीठ और नाकारा सरकारी मशीनरी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता हो। लोग बिजली के करंट की चपेट में आ रहे, पेड़ों के नीचे दब रहे, ढहती छतों के नीचे कुचले जा रहे। इतना ही नहीं, सड़कें सुरंग बनती दिखती हैैं और चूंकि तमाम इमारतें जमींदोज होने को होती हैं, लिहाजा उन्हें खाली कराने की नौबत आ जाती है।

इस तरह की त्रासदी दिल्ली और एनसीआर की परिधि में आने वाले उन शहरों की है, जिन्हें बेहतर शहर जैसा माना जाता है, लेकिन सच यह है कि वे रहने लायक शहरों की श्रेणी में भी नहीं दिखते। क्या हर साल मानसून के दौरान ऐसी ही वर्षा होती है या फिर कुंभ के मेले की तरह 12 साल में एक बार ऐसा होता है और इसी कारण उसे लेकर हम न तो तैयार रहते हैैं और न ही सचेत? संबंधित नौकरशाह अपने बचाव में चाहे जो दलीले दें, हम यह नहीं भूल सकते कि चंद दिनों पहले बारिश के बाद दिल्ली और आसपास के शहरों में भी सड़कें किस बुरी तरह खस्ताहाल दिखीं। इन सड़कों में दिल्ली और साथ ही एनसीआर के शहरों को दिल्ली से जोड़ने वाली सड़कें भी शामिल थीं। इनमें कुछ तो हाल में ही बनी थीं। इन सड़कों की दयनीय दशा की वजह बताई गई जलभराव। इसका मतलब है कि इन सड़कों पर बारिश के पानी की निकासी के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं थे।

क्या हमारा तंत्र इससे परिचित नहीं कि जाम या अन्य अवरोधों के अलावा जलभराव से भी सड़कों का भट्ठा बैठ सकता है? देश भर में तमाम सड़कें एक सीजन भी पूरा नहीं कर पाती हैं। दिल्ली से उत्तर प्रदेश के किसी शहर में दाखिल होकर देखें आपको खुद अनुभव हो जाएगा। क्या सड़कें नए सिरे से बनाने के लिए ही बनाई जाती हैैं? सड़कों के साथ पार्क भी झीलों में तब्दील दिखे। सीवेज की नालियां अटकी पड़ी थीं। उनका गंदा पानी आगे निकलने के बजाय पलटवार करते हुए कॉलोनी की सड़कों और लोगों के घरों में घुस रहा था। बसें पानी में डूबतीं और कारें पनाह मांगती दिखीं। ऐसा लगा कि ऐसे ही हालात रहे तो लोगों को कहीं अपने ठिकानों पर जाने के लिए नावों का आसरा न लेना पड़े? आखिर कौन कहता है कि हमें अभी भी जलमार्ग बनाने की जरूरत है?

बारिश के दौरान साफ-सफाई की तो कोई बात ही न करे। आखिर इस मोर्चे पर जिम्मेदार संस्थाओं ने कब जिम्मेदारी दिखाई है? कचरा उठाने, ढोने और उसका निस्तारण करने के लिए हम अभी तक कोई कारगर तंत्र नहीं बना पाए हैं। बहुत संभव है कि आपको अपने आसपास ही कोई न कोई सीवेज ड्रेन खुला हुआ मिल जाए, क्योंकि कमोबेश सीवेज सिस्टम भी अंग्रेजों के जमाने का है। सीवेज शोधन संयंत्र कभी-कभार ही काम करते हैं। इसी कारण हमारी पवित्र नदियां नालियों से भी ज्यादा गंदी हो गई हैं। स्वच्छ खाने और पानी की चुनौती ही मानों काफी नहीं थी, अब स्वच्छ हवा भी दूर की कौड़ी बन गई लगती है।

देश के तमाम शहरों के साथ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई की हवा बेहद जहरीली हो गई है। विकसित देशों के मानदंडों को तो भूल ही जाइए, उत्तर प्रदेश के ज्यादातर बड़े शहर मध्य प्रदेश के शहरों से ही मीलों पीछे हैं जिनकी हालत इस मोर्चे पर कहीं बेहतर बताई जाती है। ये हालात तब हैं जब केंद्रीय सत्ता ने स्वच्छ भारत अभियान जैसी बड़ी पहल की है और उसका जोरशोर से प्रचार भी किया जा रहा है।

वैसे तो प्रशासन आलोचना को लेकर चिकना घड़ा सा ही रहता है, लेकिन अब लगता है कि उसने प्रधानमंत्री के दिशानिर्देशों को लेकर भी कोई प्रतिरोधक शक्ति पैदा कर ली है। समझ नहीं आता कि इसे गुस्ताखी कहा जाए या नाकारापन? संभवत: यह समूची शासन प्रणाली का पतन है। कुछ और भी विडंबनाएं हैैंं। हर साल देश के कुछ हिस्से भारी वर्षा से त्राहिमाम कर रहे होते हैं तो कुछ इलाकों को सूखे की मार झेलनी पड़ती है। पर्यावरणविदों और इंजीनियरों की राय इस पर बंटी हुई है कि नदियों को जोड़ना कारगर रहेगा या नहीं? उनकी राय जो भी हो, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि व्यापक जल प्रबंधन इसमें प्रभावी भूमिका निभा सकता है।

कानून एवं व्यवस्था के अतिरिक्त कार्यपालिका से जो महत्वपूर्ण अपेक्षाएं होती हैं उनमें स्वच्छता एक है। इन दोनों में से किसी के अभाव में गरिमा के साथ जीने के मौलिक अधिकार का हनन होता है। ऐसे हालात में कोई भी ईश्वर से यही प्रार्थना करेगा कि वह वर्षा वितरण के मामले में कोई ऐसा तरीका अपनाए ताकि बारिश का पानी शहरी सड़कों के बजाय केवल ग्रामीण इलाकों के खेतों में ही गिरे। नि:संदेह यह अजीब है, लेकिन क्या यह एक विडंबना नहीं कि मानसून शब्द उल्लास का नहीं, बल्कि एक किस्म के डर का पर्याय बन गया है?

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक हैैं ]