प्रतिनिधित्व की प्रतीक्षा में अति पिछड़े समूह, नए राजनीतिक प्रश्नों को दे रहे जन्म
यह जरूरी है कि अति पिछड़ी जातियों को समुचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जाए और उनके मुद्दों पर विचार किया जाए। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के लिए जरूरी हो जाता है कि ओबीसी के अंदर सामाजिक-शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर और जातीय रूप से छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित जातियों के लिए सुरक्षात्मक उपाय किए जाएं क्योंकि अधिकांश दलों की नजर बड़ी संख्या वाली जातियों पर है।
केसी त्यागी : स्वतंत्रता के बाद यह संभावना व्यक्त की जाने लगी थी कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने से जाति जैसी सामाजिक संरचना समाप्त हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बल्कि जाति और राजनीति, दोनों ही पूरक के तौर पर काम करने लगे। भारत में सामाजिक व्यवस्था का संगठन ही जाति के आधार पर है। राजनीति तो केवल सामाजिक संबंधों की अभिव्यक्ति मात्र है, इसलिए सामाजिक व्यवस्था राजनीति का स्वरूप निर्धारित करती है। इसका व्यापक असर मंडल आयोग के बाद होने वाली चुनावी राजनीति में देखने को मिलता है। इसी के संदर्भ में जयप्रकाश नारायण ने कहा था, ‘भारत में जाति सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दल है।’
पिछले चार दशकों में जाति की राजनीति ने भारतीय राजनीति को एक नया आकार प्रदान किया है। एक ओर ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद पिछड़ा प्रतिनिधित्व सरकारी कार्यालयों से विश्वविद्यालय तक हुआ, तो दूसरी ओर राजनीति में प्रतिनिधित्व की लड़ाई और तेज हुई है। ओबीसी एक विशिष्ट वर्ग के रूप में उभरा है। इस समूह ने राष्ट्रीय राजनीति को एक नई दिशा प्रदान की, लेकिन संख्या के आधार पर सबसे बड़ा वर्ग होने और शक्तिशाली समूह होने के बावजूद राजनीति में ओबीसी मुद्दे नदारद रहते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कोई एकमत ओबीसी समूह नहीं बन पाया है। सैकड़ों जातियों और दर्जनों जाति समूहों को मिलाकर ओबीसी का निर्माण हुआ है, मगर हर जाति के बीच के अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। ओबीसी वर्ग के अंदर जुड़ाव और अलगाव की प्रक्रिया निरंतर जारी रहेगी। सामाजिक-शैक्षणिक, आर्थिक-राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर जातियां, जो संख्या के आधार पर कम और छोटे-छोटे टुकडों में विभाजित हैं, वे उपेक्षित हैं।
पिछड़ी जातियों के तहत कुछ जातियों के पास कृषि और अन्य व्यवसाय हैं और जो पारंपरिक रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत मजबूत स्थिति में हैं। इस पर विचार होना चाहिए कि उनसे भी अधिक पिछड़ी जातियां कैसे मुकाबला कर पाएंगी? सर्वाधिक पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का यथोचित लाभ पाना कठिन है। अधिकांश अति पिछड़ी जातियों के लोग विभिन्न कुटीर उद्योगों, दस्तकारी, बागवानी, मछली पकड़ने और मिट्टी के बर्तन बनाने आदि कार्यों से जुड़े हुए थे, पर 1990 में वैश्वीकरण के बाद मशीनीकरण से उनकी स्थिति खराब होती गई। इससे इन जातियों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक भविष्य पर आघात हुआ। चूंकि ये जातियां अपने कौशल से जीविका चलाती थीं इसलिए तकनीक के चलते उनकी आजीविका पर प्रहार हुआ। ये जातियां लगभग भूमिहीन हैं। वैश्वीकरण के बाद इनके पारंपरिक व्यवसाय या तो छिन गए या उनका आर्थिक आधार दरक गया। अति पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व हर क्षेत्र में बाधित हो रहा है।
इसी परिप्रेक्ष्य में अति पिछड़े समुदाय से ताल्लुक रखने वाले जननायक कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में बिहार में अति पिछड़ी जातियों की दो अलग-अलग सूचियां बनाईं और उनके लिए अलग-अलग आरक्षण का प्रतिशत तय करने का काम किया। कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय के कारण ही बिहार में अति पिछड़ों का एक सशक्त नेतृत्व तैयार हो पाया। इस माडल का विस्तार नीतीश कुमार ने 2006 में पंचायत चुनाव में और 2007 में नगर निकाय चुनाव में अति पिछड़ी जातियों के लिए सीट आरक्षित करके और उनके कल्याण के लिए अति पिछड़ा आयोग का गठन करके किया। इससे बिहार में राजनीतिक स्तर पर अति पिछड़ी जातियों का एक सशक्त नेतृत्व तैयार हो पाया।
सामाजिक न्याय का ऐसा ही माडल छेदी लाल साथी आयोग ने उत्तर प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों का अध्ययन करके तैयार किया था। इस आयोग ने मई 1977 में अपनी रिपोर्ट पेशकर पिछड़े वर्गों की तीन श्रेणियां बनाकर कुल 29.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। आयोग ने पहली श्रेणी में भूमिहीन और अकुशल मजदूरों को 17 प्रतिशत, दूसरी श्रेणी में दस्तकार और किसानों को 10 प्रतिशत आरक्षण तथा तीसरी श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को 2.5 प्रतिशत आरक्षण देने का सुझाव दिया था, किंतु साथी आयोग की सिफारिशों को नहीं माना गया।
विधानमंडलों एवं मंत्रिमंडलों में अति पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व होना एक शर्त होनी चाहिए, लेकिन इन संस्थाओं में इन जातियों का प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य है। मंडल आयोग के बाद भी ऐसी कई जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला। इन जातियों के नेता अपने प्रतिनिधित्व के लिए भाजपा के साथ जाने में कोई संकोच नहीं करते। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं ने यह समझने में गलती की है कि भिन्न-भिन्न जातियों की स्थिति अलग-अलग हो सकती है। यही कारण है कि अति पिछड़ी जातियां नए राजनीतिक प्रश्नों को जन्म दे रही हैं।
यह जरूरी है कि अति पिछड़ी जातियों को समुचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जाए और उनके मुद्दों पर विचार किया जाए। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के लिए जरूरी हो जाता है कि ओबीसी के अंदर सामाजिक-शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर और जातीय रूप से छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित जातियों के लिए सुरक्षात्मक उपाय किए जाएं, क्योंकि अधिकांश दलों की नजर बड़ी संख्या वाली जातियों पर है, जबकि भाजपा छोटी-छोटी संख्या वाली जातियों को जोड़ने में सफल हो जाती है और इसी कारण वह लगातार चुनाव जीत रही है।
पटना में होने वाली विपक्षी दलों की बैठक में भाजपा से मुकाबले के लिए सामाजिक न्याय, जातिगत जनगणना के साथ ही आरक्षण वर्गीकरण हेतु रोहिणी आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित कराने और उसे लागू कराने पर विचार किया जाए, क्योंकि अति पिछड़ा वर्ग राजनीति को प्रभावित कर रहा है।
(लेखक जदयू के विशेष सलाहकार और मुख्य प्रवक्ता हैं)
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