[ स्वामी अवधेशानंद गिरि ]: इस वैश्विक संकट काल में कोरोना वायरस के संक्रमण से विश्व की भांति भारतवर्ष भी अछूता नहीं है। इस संक्रमण के बीच अन्य परिस्थितिजन्य घटनाक्रमों पर चित विचार करें तो अमेरिका समेत अनेक शक्तिशाली देशों द्वारा भारत से औषधि और चिकित्सीय मार्गदर्शन की अपेक्षा भारत के दिव्योदय का ही संकेत है। आज विकसित और उच्चस्तरीय चिकित्सीय सुविधाओं का दंभ भरने वाले राष्ट्र भी कोरोना विषाणु जनित बीमारी कोविड-19 के सम्मुख नतमस्तक हैं। सरकारें, सुरक्षा तंत्र और अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान अर्थहीन से प्रतीत हो रहे हैं। ऐसे समय में आत्मशक्ति और आध्यात्मिक अंत:करण संपन्न नेतृत्व ही विश्व भर में उम्मीदों के सूरज उगा सकता है। कुछ लोग कोरोना को परिस्थितिजन्य और स्वत:स्फूर्त मान रहे हैं, जबकि कुछ इसके पीछे वर्चस्व की लड़ाई और षड्यंत्र देख रहे हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण का तात्कालिक कारण जो भी हो, किंतु मूल कारण मनुष्य की असीमित भोग वांछाएं और श्रेष्ठता का दंभ है।

पीएम मोदी ने कोरोना संकटकाल में एक सशक्त नेतृत्वकर्ता की भूमिका का निर्वहन किया

मैं ही श्रेष्ठ हूं। मेरी मान्यताएं और परंपराएं श्रेष्ठ हैं, इसलिए इस वसुधा के संपूर्ण वैभव का एकमात्र भोक्ता मैं ही हूं- ऐसे विचार समष्टि के लिए हितकर नहीं हैं। हिंदू वैदिक संस्कृति संपूर्ण विश्व को अपना परिवार मानती है इसलिए ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ जैसे दिव्य भावों की चिरकाल से उद्घोषक रही है। एक संन्यासी होने के नाते मैं यह जानकर प्रसन्न हूं कि वर्तमान में हमारा शीर्ष नेतृत्व उसी वैदिक परंपरा और औदार्य भाव की युगानुकूल अभिव्यक्ति सी प्रतीति करा रहा है। उल्लेखनीय यह है कि प्रधानमंत्री ने कोरोना संकटकाल में एक सशक्त नेतृत्वकर्ता की भूमिका का निर्वहन किया है। मात्र सरकारी उत्तरदायित्व के निर्वहन की परंपरागत कार्यशैली के विपरीत संयम और उत्साहपूर्वक सर्वस्वीकृत वैज्ञानिक पद्धति को अंगीकृत कर उन्होंने राष्ट्र को मानसिक संबल तो प्रदान किया ही, साथ ही भिन्न-भिन्न, रीति-नीति और परंपराओं से परिपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में भी सफल हुए।

जीवन शैली में ध्यान-योग ही प्रधानमंत्री को वैश्विक नेतृत्व की सामर्थ्य प्रदान करता है

कोरोना के विरुद्ध इस महा अभियान में उन्होंने सांकेतिक रूप से धार्मिक-आध्यात्मिक उपादानों को भी अंगीकार किया। उनके ये सूक्ष्म प्रयास महज कपोल कल्पना या टोटके नहीं, अपितु तार्किक और वैज्ञानिक रूप से भी प्रासंगिक एवं स्वस्थ और तनावरहित मस्तिष्क के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। इन्हीं सद्प्रयासों और प्रतिबद्धताओं के कारण इस संक्रमण काल में भी प्रत्येक भारतीय सजग, सतर्क, उत्साही और एकात्म है। प्रधानमंत्री का दैनिक कार्यकलाप-जीवन शैली में ध्यान-योग आदि आध्यात्मिक विधाओं का अवगाहन उन्हें वैश्विक नेतृत्व की सामर्थ्य प्रदान करता है।

भारतीय-आध्यात्मिक जीवन शैली ही ग्लोबल वार्मिग जैसे संकटों से उबार सकती है

भारत की कालजयी मृत्युंजयी सनातन वैदिक संस्कृति प्रकृति-पर्यावरण के सर्वथा अनुकूल है। कोरोना ने मेरे इस मत को पुन: पुष्ट किया है कि भारतीय-आध्यात्मिक जीवन शैली ही विश्व को ग्लोबल वार्मिग और पर्यावरण जन्य अन्य संकटों से उबार सकती है। प्रकृति परमात्मा की पारमार्थिक सत्ता का विस्तार है और मां की भांति समस्त प्राणियों की हितसिद्धि हेतु तत्पर हैं, किंतु हमारे लोभ, असंतोष और अहंकार के कारण हमने अपने परिवेश में अनेक विकृतियां पैदा कर दी हैं। इसके परिणाम सभी को भोगने पड़ रहे हैं। मनुष्य को अपने अहंकार से ऊपर उठकर समष्टि का सम्मिलित हित देखना होगा। उन्नत वैज्ञानिक तकनीकी-अनुसंधान, सरकारें और राष्ट्रों की सामरिक शक्तियां अपनी जगह हैं, किंतु इन सबसे परे कोई ऐसी सत्ता है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड को संचालित करती है। समय-समय पर वह अपना आभास भी कराती है। ऐसे में मनुष्य का सारा दंभ, तकनीक, ज्ञान-विज्ञान सब धरा रह जाता है। 

पर्यावरण को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षित और सुरक्षित रखना है

यक्ष प्रश्न यह है कि मानव अपनी भूल सुधार कैसे करे? चूंकि प्रकृति के साथ एकात्मता, समन्वय और सह अस्तित्व का भाव ही समष्टि में संतुलन कारक है, इसलिए हमारे पूर्वजों ने ऐसी रीति-नीति और परंपराओं और जीवन शैली को अपनाया जो प्रकृति के अनुकूल हो। हिंदू वैदिक जीवन पद्धति प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की बात नहीं करती, अपितु उसे समष्टि के लिए उपयोगी बनाने की बात करती है। जैसे पर्यावरण को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले समस्त कारकों की देवता के रूप में आराधना ताकि वह संरक्षित और सुरक्षित रहे।

सुखी जीवन के लिए योग, प्राणायाम-आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा कारगर हैं

कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष जिस तरह भारतीय रीति-नीति और परंपरा अनुसार अभिवादन करते दिखे उससे वैदिक सनातन हिंदू संस्कृति की सार्वभौमिकता भी प्रकाश में आई है। यह कोई पहला अवसर नहीं है जब भारतीय संस्कृति-संस्कार और परंपराएं प्रकृति के साथ एकात्म और उसके सूक्ष्म संवेगों से एकीकृत दिख रही हैं। कष्टप्रद बात यह है कि लोग बिना अध्ययन-अनुभव के इन गूढ़तम आध्यात्मिक रहस्यों को समझे बिना इसे पाखंड अथवा अंधविश्वास का नाम दे देते हैं। पहले वैश्विक स्तर पर ऐसी स्वीकृति बनी थी कि सुखी जीवन के लिए योग, प्राणायाम-आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा विशेष रूप से कारगर हैं और इनके द्वारा असाध्य से असाध्य रोगों का भी सहज निदान और उपचार संभव है। इसी तरह संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता भी प्रामाणिक हुई है।

हमारा आहार-विहार और जीवन पद्धति प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल हो

संपूर्ण विश्व संकट से जूझ रहा है। ऐसे में विश्व प्रकृति-पर्यावरण अनुकूल जीवन शैली को अपनाने की आवश्यकता है। हमें अपनी असीमित भोग वांछाओं पर अंकुश लगाना होगा। हमारी रीति-नीति परंपराएं और विश्वास भले अलग-अलग हों, किंतु सबके मूल में एक ही परमात्मा विद्यमान है इसलिए हमारा आहार-विहार और जीवन पद्धति ऐसी हो जो प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल हो और उसमें सह अस्तित्व के भाव समाहित हों। हम सबको नैसर्गिक- प्राकृतिक जीवन अभ्यासी बनना होगा।

( लेखक भारत माता मंदिर-समन्वय सेवा ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं )