विदेशी ताकतों के लंबे हाथों में नहीं पहुंच सकी भारत की ब्रह्मोस मिसाइल की तकनीक
राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे की भी पड़ताल होनी चाहिए।
[ आरपी सिंह ]: ब्रह्मोस मिसाइल की तकनीक दुश्मन देश को बेचने के आरोप में डीआरडीओ के इंजीनियर की गिरफ्तारी ने एक बार विदेशी एजेंटों की भूमिका और उनके खतरों को लेकर चर्चा छेड़ दी है। इसमें भारत इकलौता देश नहीं है। यहां तक कि महाशक्ति माने जाने वाले अमेरिका में भी अभी तक इस बहस पर विराम नहीं लगा है कि डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति चुनाव जिताने में रूस की क्या भूमिका थी? भारत में भी विदेशी ताकतों के हाथ होने की बात यदाकदा उठती रहती है। पड़ोसी या शत्रु देश में अपनी पसंद के शासक को स्थापित करने की परंपरा मानव सभ्यता की शुरुआत से ही चली आई है।
कौटिल्य ने भी अपनी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' और चीनी दिग्गज रणनीतिकार सुन जू ने अपनी पुस्तक 'आर्ट ऑफ वॉर' में दो सहस्राब्दि पहले ही साम्राज्यों को सुचारू रूप से चलाने वाले तौर-तरीकों का खाका पेश किया था। अर्थशास्त्र में गुप्तचर तंत्र का विस्तृत रूप से उल्लेख है। वे विदेशी घुसपैठियों की पहचान कर राज्य में आंतरिक शांति बनाए रखने और दुश्मन देश में सेंधमारी से अपने राजा की जीत की राह आसान बनाते थे। साथ ही गुप्तचर आंतरिक स्तर पर वित्तीय गड़बडिय़ों, राष्ट्रद्रोह और राजा के खिलाफ षड्यंत्रों को नाकाम करते थे। बदलते वक्त के साथ नई तकनीकों के आने से जासूसी का काम काफी परिष्कृत हो गया है, लेकिन उसका मूल मकसद आज भी वही है।
शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत रूस ने तीसरी दुनिया के देशों में राजनीतिक दलों, नेताओं, चुनाव नतीजों, सैन्य विद्रोह पर पानी की तरह पैसा बहाया ताकि वे वहां अपनी पसंद के शासकों को स्थापित करा सकें। भारत में कांग्र्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी से वित्तीय मदद मिलती रही तो अमेरिकी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी यानी सीआइए ने अपना दांव दक्षिणपंथी दलों पर लगाया। केजीबी में ऊंचे ओहदे पर रहे वासिली मित्रोखिन ने अपनी किताब में केजीबी की कार्यप्रणाली का खुलासा किया।
मित्रोखिन ने 1992 में ब्रिटेन में शरण ली और वह केजीबी के दस्तावेजों का एक बड़ा पुलिंदा अपने साथ ले गए। 'मित्रोखिन आर्काइव वॉल्यूम-2' नाम से प्रकाशित उनकी किताब विशेष रूप से भारत में केजीबी के कार्यसंचालन पर केंद्रित है। इसमें केजीबी के भारतीय सूत्रों का विस्तृत ब्योरा है जिनमें राजनीतिक दलों, नेताओं, मंत्रियों और नौकरशाहों के नाम हैं। आइबी के पूर्व निदेशक एमके धर ने अपनी किताब 'ओपेन सीक्रेट्स' में लिखा कि 'आइबी ने इंदिरा गांधी कैबिनेट के चार मंत्रियों के अलावा ऐसे दो दर्जन अन्य सांसदों की निशानदेही की थी जो केजीबी से पैसे लेते थे।' पैसों का पूरा ब्योरा सीधे प्रधानमंत्री को सौंपा जाता था और उनके परिवार के एक सदस्य दुनिया के सबसे धनी नेताओं में शामिल होते जा रहे थे जिनके विदेशी बैंक खातों में पहले ही 2 अरब डॉलर की रकम जमा हो चुकी थी जिसकी जानकारी आम हो गई थी। बाद में केजीबी और सीआइए की जगह पाकिस्तान की आइएसआइ और चाइनीज मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट सिक्योरिटी यानी एमएसएस ने ले ली।
जहां केजीबी और सीआइए में आपसी होड़ थी वहीं आइएसआइ और एमएसएस एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। उनका एक ही एजेंडा है कि किसी भी हाल में भारत को कमजोर को कमजोर करना। इसमें भी एमएसएस मानव संसाधनों का काम मुख्य रूप से आइएसआइ से लेती है, क्योंकि चीन भारत में जासूसी के लिए हद से ज्यादा सक्रिय होता नहीं दिखना चाहता। अपने भारी-भरकम बजट के अलावा आइएसआइ सऊदी अरब जैसे देशों और दाऊद इब्राहिम जैसे तस्करों के माध्यम से भारतीय मुसलमानों को बरगलाने के नाम पर मिलने वाली मदद का भी फायदा उठाती है। तमाम सरकारी विभागों में एमएसएस की तगड़ी पैठ है।
अत्याधुनिक ढांचे वाले चीनी कमान-सामरिक सहयोग बल का डिजिटल दुनिया में कोई तोड़ नहीं है। उसके हैकरों ने तो अति सुरक्षित अमेरिकी डाटा तक में सेंधमारी कर ली है। चीन खुफिया जानकारी के लिए बहुआयामी रणनीति पर काम करता है। इसमें विभिन्न स्रोतों से जुटाई जानकारी का वाणिज्यिक, तकनीकी और सैन्य फायदे के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह पूरा काम एमएसएस की निगरानी में होता है।
एमएसएस दुनिया भर में नेताओं, सरकारी अधिकारियों और यहां तक सेना के जनरलों को भी रिश्वत खिलाती है। इसमें बिचौलियों और हवाला के जरिये पैसा भेजा जाता है। अमेरिकी संघीय जांच ब्यूरो की पड़ताल में यह सामने आया है कि चीन ने तमाम ऐसे मसलों पर अपने हित में फैसले कराने के लिए अमेरिकी सीनेटरों को रिश्वत खिलाई। इसी तरह आइएसआइ और एमएसएस भारत में भी तमाम उच्च अधिकारियों के जरिये अपने हित साध रहे हैं। ऐसे में कोई हैरत की बात नहीं कि कुछ नेता पाकिस्तान और चीन के मामलों की पैरवी करते हैं। कुछ को तो मौजूदा मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने में पाकिस्तान की मदद लेने से भी गुरेज नहीं है। ऐसे ही एक नेता ने कुछ अर्सा पहले पाकिस्तानी राजनयिक के सम्मान में भोज दिया जिसमें पूर्व उप-राष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व सेना प्रमुख, पूर्व राजनयिक और चुनिंदा पत्रकार भी शामिल हुए।
हैरानी इस बात की है कि सरकार से जुड़े पूर्व दिग्गज और विशेषकर पूर्व सेना प्रमुख का पाकिस्तानी मेहमान के साथ क्या नाता था जो वे उसमें शामिल हुए। इन्फोटेनमेंट, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में भी आइएसआइ के नुमाइंदों की घुसपैठ है जो भारत में पाकिस्तान का नजरिया रखते हैं।
इसरो में वरिष्ठ वैज्ञानिक रहे नंबी नारायणन का मामला बीते दिनों सुर्खियों में रहा। सीआइए ने भारतीय खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर 1994 में उन्हें जासूसी के एक झूठे मामले में फंसा दिया था। इस मामले की साजिश इसलिए बुनी गई, क्योंकि भारत स्वदेशी क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन बनाने की दिशा में ठोस प्रगति करने के मुहाने पर था जो लंबी दूरी की मिसाइल के लिए बहुत अहम था। सीआइए ने इसे पटरी से उतार दिया। जासूसी मामले में मालदीव की एक महिला को आरोपी बनाया गया कि वह खुफिया जानकारी जुटा रही थीं जिस जानकारी का कोई वजूद ही नहीं था। जाने-अनजाने में नेता और पत्रकार सीआइए के इस जाल में फंस गए और क्रायोजेनिक परियोजना अधर में लटक गई। सुप्रीम कोर्ट ने नारायणन को तो बाइज्जत बरी कर दिया, लेकिन इसके साजिशकर्ताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
रक्षा उपकरणों के विकास, खरीद एवं अधिग्र्रहण को अटकाना और हथियारों की गुणवत्ता को लेकर झूठी अफवाहें फैलाना एक बड़ी साठगांठ का हिस्सा है जिसका मकसद सैन्य बलों का मनोबल गिराना है। भारतीय वायु सेना में लड़ाकू विमानों का अभाव तो है ही उसमें नई पीढ़ी के विमान भी नहीं हैं। ऐसे में पाकिस्तान और चीन को जवाब देने में हमारी वायु सेना की क्षमताएं सीमित हो जाती हैं। पिछले साल पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के बाद फॉलोअप अभियान न चलाने की एक वजह यह भी हो सकती है, क्योंकि इसकी पुनरावृत्ति से युद्ध भड़कने की आशंका थी। राफेल की खरीद में अब अनावश्यक देरी हो रही है। इसे लटकाकर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाला जा रहा है।
मनोवैज्ञानिक लड़ाई में अगर एक झूठ को ही सौ बार दोहराया जाए तो वह कुछ सच का सा आभास देने लगता है। यही कारण है कि सरकारों के बीच हुए सौदे को भी घोटाला कहा जा रहा है। भारत में विदेशी मदद के अवैध प्रवाह की उच्च स्तरीय जांच कराने की जरूरत है कि आखिर कुछ दल और नेता रक्षा खरीद को अटकाने और चीन एवं पाकिस्तान का गुणगान करने में क्यों जुटे हैं। राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे की भी पड़ताल होनी चाहिए।
[ लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं ]