कृतज्ञता
कृतज्ञता वह सुकृत्य है जो व्यक्ति के सुसंस्कृत होने का भान कराती है, साथ ही उसे सामाजिक और सांसारिक भी बनाती है। कृतज्ञता एक संस्कार है। इससे संस्कारित व्यक्ति विनम्रता की मूर्ति होता है। जहां दूसरों की सहायता एवं सेवा करना उत्कृष्ट मानवीय कर्तव्य है वहीं संकट की विषम स्थिति में दूसरों द्वारा अपने प्रति की गई सहायता एवं सेवा के लिए कृतज्ञ व्यक्तित्व अपने हृदय में उसके प्रति विशेष आदर का भाव रखता है। सहृदयता का प्रतिकार वह विनम्र आभार द्वारा चुकाता है। धन्यवाद, साधुवाद, शुक्रिया आदि शब्द कृतज्ञता के सूचक शब्द मात्र ही नहीं,अपितु हार्दिक आभार के भार से नमित सुकर्म होते हैं।
कुछ लोग संकट काल में काम आने वाले महानुभावों के चिर ऋणी होने की अभिव्यक्ति द्वारा अपने कृतज्ञता संपन्न होने का परिचय देते हैं। कृतज्ञता एक सामान्य शिष्टाचार भी है। कृतज्ञ प्राणी अपने शिष्ट वचनों द्वारा कृपा करने वाले का आभार व्यक्त करता है। वह जानता है कि उसकी रत्तीभर की उदासीनता उसे भविष्य में इस प्रकार की कृपा से वंचित कर सकती है। भविष्य में कष्टमय परिस्थितियों में इसी प्रकार कृपालुओं का सहयोग मिलता रहे, इसलिए इस शिष्टाचार के माध्यम से वह अपने व्यक्तित्व का उज्जवल एवं मानवीय पक्ष समाज के सामने प्रस्तुत करने के साथ ही एक आदर्श एवं प्रेरक उदाहरण भी बनना चाहता है। यह शिष्टाचार उसे सम्मान में सम्मानित नागरिकों की श्रेणी में खड़ा कर देता है। कृतज्ञता अनुग्रहकर्ता के प्रति अनुग्रहीत होने का भाव-ज्ञापन भी है। जहां अनुग्रहकर्ता वंदनीय एवं उसका कृत्य अभिनंदनीय होता है वहीं अनुग्रहीत होकर कृतज्ञता ज्ञापित न करने वाला निंदनीय होता है। कृतज्ञता के ज्ञापन से जहां एक ओर अनुग्रहकर्ता को अपने किए कार्य की महत्ता का ज्ञान एवं उसके कृतज्ञता रूपी प्रतिफल का आनंद प्राप्त होता है वहीं अनुग्रहीत को समय पर सहायता मिल जाने से संकट की विकरालता से मुक्त होने का सुख प्राप्त होता है। इससे दोनों पक्ष लाभान्वित एवं आनंदित होते हैं।
[वेदप्रकाश मिश्र]
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