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    प्रेम का अर्थ

    By Edited By:
    Updated: Mon, 05 Nov 2012 03:25 AM (IST)

    उन लेखकों, कवियों के बारे में सोचो जिन लोगों ने प्रेम के बारे में लिखा है। जिन लोगों ने प्रेम की परिभाषा की है, जिन लोगों ने प्रेम को नाम दिया है उनकी लेखनी ने बहुत थोड़ा समय दिया है प्रेम के लिए, जो व्यावहारिक नहीं है। दुनिया के जितने भी कलाकार हैं उनसे पूछो वे सब के सब अधिक समय प्रेम के लिए नहीं दे पाते। क्योंकि यह उनकी कला के अपमान का कारण होगा। यह उनके पेशे की तौहीन होगी। यही तुम एक नेता से पूछो, एक मंत्री से पूछो, एक व्यवसायी से पूछो-क्या वे प्रेम कर पाते हैं? एक संगीतकार से पूछो तो वह प्रेम के बदले अपने संगीत को ज्यादा महत्व देगा। एक पेंटर से पूछो तो वह अपनी कला का अपमान समझेगा।

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    प्रेम का अर्थ यह नहीं है। प्रेम तो हृदय का विषय है जितना प्रेम चाहो तुम कर सकते हो-अगर तुमने दिल से प्रेम किया है तब। प्रेम कोई समझौता नहीं है, प्रेम कोई प्रतिबंध नहीं है, प्रेम तो एक बहाव है जो दिल से निकल कर बहता है। प्रेम एक ऐसी नदी है जो कभी समाप्त नहीं होती। और इसमें लाखों लोग अपने रास्ते को तलाश करते हैं। मोक्ष, मुक्ति को प्राप्त करते हैं और यह कभी थकती नहीं। तुम्हारा मन थक जाता है। तुम्हारा तन थक जाता है। तुम प्रेम को दोष नहीं दे सकते। प्रेम की व्याख्या करने वालों ने गलती की है, प्रेम तो सच्चा है। प्रेम तो थोडे़ समय में आनंद को छू लेता है। और वर्षो प्रेम भी सफल नहीं होता। यह सारी व्यवस्था गलत हो गई है। यह जरूरी नहीं है कि प्रेम क्षणिक नहीं हो सकता। यह भी निश्चित नहीं है कि तुम एक बार जिससे प्रेम करते हो उसी से जीवन भर करना-सच्चा प्रेम है। यदि सुबह का खिला हुआ पुष्प शाम को सूख जाता है तो वह सच्चा पुष्प नहीं है? प्रेम तो परमात्मा की समीपता का आभास कराता है। प्रेम की डोर पकड़कर हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। जिसने प्रेम का मर्म जान लिया फिर उसे और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं।

    [महायोगी पायलट बाबा]

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