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    संस्कृति एवं पर्व

    By Edited By:
    Updated: Thu, 18 Oct 2012 03:40 AM (IST)

    भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता है 'सर्वेभवंतु सुखिन:, अर्थात सभी सुखी हों। दूसरी विशेषता है 'आनो भद्रा कतयो यंतु विश्वत:, अर्थात जो श्रेष्ठ हो, कल्याणमय, ज्ञान और कर्म चारों ओर से हमारे पास आएं। तीसरी विशेषता यह है कि भारतीय संस्कृति उत्सव अनुगामिनी है। साथ ही विश्व में सबसे पुरातन है। भारतीय जीवन पर्वो के माध्यम से अपनी संस्कृति को जीवंत बनाए है। ये पर्व सच्चे अर्थो में भारतीय संस्कृति के रसायन हैं। प्रत्येक वर्ष गुरुपूर्णिमा, विजयदशमी, दीपोत्सव, मकर संक्रांति, होली आदि पर्व उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। सभी पर्वो के अपने-अपने उद्देश्य हैं। गुरुपूर्णिमा का पर्व शिक्षा संस्थाओं, संतों के प्रति आस्था व्यक्त करने, गुरुजनों को सम्मान देने के लिए अनादिकाल से चला आ रहा है। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव को जनमानस बड़ी आस्था से मनाता है। गणेशोत्सव, दुर्गापूजा शक्ति का अर्जन करने के लिए होता है। मां दुर्गा सभी क्लेशों को दूर करने में सक्षम हैं। इसीलिए वर्ष में दो बार नवरात्र का पर्व मनाया जाता है। विजयदशमी का पर्व पारस्परिक, प्रेम और सद्भाव का प्रतीक है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग गिले-शिकवे भुलाकर गले मिलते हैं।

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    इसी क्रम में दीपोत्सव परिश्रम साध्य अर्जन करके लाभ और शुभ की कामना का पर्व है। कृषक मिट्टी के दीपों से अपनी उपज अच्छी हो इसकी कामना के लिए मां धरती का अभिनंदन करते हैं-'जागो धरती माता जागो।' यह सर्जना का पर्व है। इस पर्व में भी अब सहजता का अभाव देखने को मिलता है। वास्तव में दीपोत्सव अंधकार से प्रकाश की ओर चलने का संदेश लिए प्रतिवर्ष आता है। राष्ट्र की एकता का सहभागी है। इसी क्रम में होली का पर्व भी उमंग, उत्साह और उल्लास का पर्व है। कटुताओं को होलिका में भस्म करके प्रेम के रंगों से समाज के छोटे बड़े लोग मिलते हैं। पर इस पर्व में दोष प्रवेश कर रहा है कीचड़ से होली खेलना। इन पर्वो त्योहारों में हमारी भारतीय संस्कृति जो अब तक सुरक्षित चली आ रही है उसे बचाने के लिए प्रदूषित सोच बदलने की आवश्यकता है।

    [धनंजय अवस्थी]

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