आत्मसंतोष
अपने पुरुषार्थ और परिश्रम द्वारा सुख प्राप्त करने से स्थायी आनंद तथा आत्मसंतोष प्राप्त होता है। किसी के सहारे सुख अर्जित कर लेने से कुछ समय के लिए तो सुखद अनुभूति होगी, लेकिन उसका अंत दुखद या विपरीत परिस्थितियां में ही होगा। अत: सुख-दुख को समान समझकर हमें संयम, धैर्य और आत्मीयता का पालन करना है। हम अपने जीवन को सद्गुणों, आदर्र्शों और मूल्यों से जितना समृद्ध रखेंगे उतना ही हम लोगों के प्रिय होने के साथ ही परमात्मा के भी प्रिय होंगे। तभी प्रभु की विशेष कृपा एवं अनुग्रह हमें मिलेगा। हमें सामाजिकता को नैतिकता, मानवता, आदर्शो और मूल्यों से परिभाषित करना होगा तभी समाज में सुख-शांति एवं समृद्धि का वातावरण विकसित होगा जो हम सबके लिए कल्याणकारी होगा।
हमारी चेतना यद्यपि समय-समय पर हमें सचेष्ट करती रहती है कि हम अपने आचरण में मलिनता न आने दें, किंतु स्वार्थवश हम उसे नजरअंदाज करते रहते हैं। यह हमारा दोष है, जिसकी कीमत हमें अपने जीवन में चुकानी पड़ती है। आवश्यकताओं को सीमित करने का अभ्यास करते रहने से निराश नहीं होना पड़ेगा। जब कहीं आशा का जन्म होता है तो निराशा भी अदृश्य रूप से साथ में विद्यमान रहती है। हमारी चेतना ही हमारी शक्ति है। इस शक्ति का हम दुरुपयोग न होने दें। यह हमारा प्राणतत्व है इसके अभाव में जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। हमारी चेतना से ही हमारा अस्तित्व है। हम अपने कर्मो से इसे उत्कृष्टता प्रदान कर अपना और समाज का कल्याण कर सकते हैं, क्योंकि प्रभु भी हमसे यही अपेक्षा रखते हैं और इसके लिए सदैव किसी न किसी रूप से हमें दिशानिर्देश देते रहते हैं। चेतना प्राण है। हमारा अस्तित्व इसके बिना संभव नहीं। चेतना ही वह माध्यम है जो हमें परमात्मा का बोध कराती है। हमारे समस्त सांसारिक कर्म और हमारे मन सहित सभी ज्ञानेंद्रियां और कर्मेद्रियां चेतना से ही संचालित होती हैं। पंचतत्वों से बना शरीर चेतना से स्पंदित होता है। हमारा आध्यात्मिक चिंतन जितना प्रखर होगा, उतना ही हम अपनी चेतना को पहचानेंगे और अपने आचरण एवं व्यवहार में उत्कृष्टता लाएंगे।
[डॉ. राजेंद्र दुबे]
मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।