राजनीति-प्रशासन का रिश्ता
एक ज्वलंत प्रश्न है कि कोयला घोटाला और 2जी स्पेक्ट्रम घेटाले में इन दो बड़ी बातों के अतिरिक्त और क्या समानता है कि दोनों घोटाले करीब-करीब पौने दो-दो लाख के हैं और इन दोनों घोटालों का पर्दाफाश करने का श्रेय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी का जाता है? इस सवाल का जवाब यह होगा कि दोनों के आवंटन की प्रक्रिया के बारे में दोनों मंत्रालयों के सचिवों ने लिखित रूप में अपनी असहमति व्यक्ति की थी। जाहिर है कि यदि इनकी बात मान ली गई होती, तो हमारा देश इस घोटाले के शर्म से बच जाता। देश की समस्त लोकतांत्रिक एवं प्रशासनिक संस्थाओं पर जबरन प्रभुत्व स्थापित कर चुकी राजनीतिक शक्ति के इस तानाशाही के दौर में यह वह महत्वपूर्ण बिंदु है जिस पर पूरी गंभीरता से विचार करके राजनीति एवं प्रशासन के बीच के अंतरसंबंधों को फिर से परिभाषित किया जाना चाहिए।
प्रशासनिक मशीनरी संविधान की आत्मा को कार्यरूप में परिणत करने वाली एक जैविक प्रणाली होती है। वह अपने व्यवहार में निरंकुश न हो जाए, इसीलिए दुनिया के अधिकांश देशों में राजशाही के विकल्प के रूप में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था स्थापित की गई है। संवैधानिक दृष्टि से तथा व्यावहारिक दृष्टि से भी यह बात साफ है कि व्यवस्था के अंदर राजनीति का मुख्य काम प्रशासन को नेतृत्व प्रदान करता होता है, ताकि प्रशासन जनता की आकांक्षा को 'विधि द्वारा स्थापित शासन' की सीमाओं में पूरा कर सके। जिस सीमा तक संतुलन बना हुआ है उन देशों में उसी सीमा तक लोकतांत्रिक व्यवस्था कारगर है। हमें अपने यहां की इस व्यवस्था को इस संदर्भ में भी सोचे जाने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का अंत मात्र एक लोकपाल विधेयक के पारित हो जाने से हो जाए तथा इन दोनों के बीच परस्पर तनाव बढ़ता ही चला जाए। यदि ऐसा होता रहा, जिसका पूरा अंदेशा है तो इसकी परिणति अंतत: अराजकता में होगी। आजादी के बाद का अब तक का प्रशासनिक इतिहास इस बात का प्रमाण है कि प्रशासनिक व्यवस्था क्रमश: पंगु होती चली गई है। इसके लिए दोनों में से किसी एक को या दोनों को दोषी ठहराने की बजाय उपयुक्त यह होगा कि इसके कारणों की तलाश करके इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए इलाज शुरू किया जाए। लगभग पैंसठ सालों में इतने बड़े देश में और वह भी लोकतंत्र की शुरुआत और तेजी से बदलती राजनीतिक-सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों के बावजूद अब तक केवल दो प्रशासनिक सुधार आयोग बैठाए गए और उनकी भी रिपोर्टे धूल खा रही हैं। आखिर ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि प्रशासनिक सुधार का मुद्दा हमारे राजनीतिक आकाओं को रास आता ही नहीं है। यह व्यवस्था जितनी कमजोर रहेगी, ये उतने ही मजबूत रहेंगे।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में दिग्विजय सिंह ने हैदराबाद की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में नए आइपीएस अफसरों को संबोधित करते हुए एक जोरदार और बहुत व्यावहारिक सीख दी थी। उन्होंने कहा था कि हम तो राजनीतिक लोग हैं। हमारे लोग हमारे पास काम कराने आते हैं और हम लोग उस काम को करने के लिए आप लोगों से कहते हैं। फिर हम आपके रवैये को देखते हैं। यदि आप गलत काम को करने से इन्कार कर देते हैं तो हम समझ जाते हैं कि आप क्या हैं? अगली बात हम आपको नहीं कहेंगे। यदि आप कर देते हैं तो जाहिर है कि हम तो फिर से कहेंगे ही, क्योंकि लोग हमारे पास आते हैं। हमें तो उनकी सुननी ही है। दिग्विजय सिंह यहां गलत नहीं हैं, तनिक भी नहीं। आखिर लोकतंत्र का मतलब भी तो यही है कि लोगों की सुनी जाए, लेकिन हमारी प्रशासनिक व्यवस्था की सबसे कमजोर नस यह है कि कोई भी अधिकारी, यदि 'ना' कह देता है तो राजनेता अगली बार उससे कहने से हिचकता नहीं है, बल्कि उसके स्थान पर अपना कोई 'यस मैन' ले आता है। अधिकारियों के स्थानांतरण का यह अधिकार जिसका उपयोग अधिकांश मौकों पर पुरस्कार या दंड के तौर पर किया जाता है, के बारे में कोई ठोस प्रावधान किया जाना पहली जरूरत है। आज सीएजी के विनोद राय जो कुछ कर पा रहे हैं या 1990 में चुनाव आयुक्त टीएन शेषन जो कुछ कर पाए उसके पीछे संविधान द्वारा उनको प्रदत्त यही शक्ति थी कि 'तुम विधि के अनुसार काम करो, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।' सीएजी जब दिल्ली के विज्ञान भवन में अपनी स्थापना की डेढ़ सौंवीं वर्षगांठ मना रहा था तब हमारे प्रधानमंत्री ने अप्रत्यक्ष चेतावनी दी थी कि 'संस्था को अपनी सीमा में रहना चाहिए।' यदि संवैधानिक प्रावधान नहीं होते तो साफ है कि विनोद राय भी अभी सीएजी नहीं होते।
प्रशासन को कुछ सुरक्षा प्राप्त है। उन्हें नौकरी से आसानी से निकाला नहीं जा सकता। उनकी तनख्वाहें भी सामान्य तौर पर कम नहीं की जा सकतीं। लेकिन ट्रांसफर और पोस्टिंग के ये दो हथियार ऐसे हैं, जो पूरी तरह राजनीति के हाथ में हैं और जिनका इस्तेमाल अधिकांश जगहों पर तो 'उद्योग' के रूप में हो रहा है। इसी स्थिति में सुधार लाने के लिए कुछ साल पहले वर्तमान प्रधानमंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्रियों से कुछ महत्वपूर्ण पदाधिकारियों का कार्यकाल निर्धारित करने को कहा था, लेकिन इससे उनके हथियार की धार भोथरी होती। जाहिर है, इस राय को ठुकरा दिया गया।
पिछले लगभग डेढ़ दशक से मुख्य सचिव, कैबिनेट सचिव तथा गृह सचिव जैसे महत्वपूर्ण अधिकारियों की पुनर्नियुक्ति और उन्हें राजनीतिक पद दिए जाने की प्रवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी है। अखिल भारतीय सेवाओं के जितने अधिकारी आज कई राज्यों के राज्यपाल बने हुए हैं, इससे पहले शायद ही कभी इनकी संख्या उतनी रही हो। फिर यूपीएससी, सूचना आयोग, चुनाव आयोग, अनेक प्राधिकरण तथा राज्यों में भी न जाने कितने आयोग और प्राधिकरण हो गए हैं जहां इन्हें 'शरण' दी जा सकती है। यह राजनीति के हाथ में वह चीज है जिसकी अनदेखी कर पाना अफसरों के लिए काफी मुश्किल होती है। स्पष्ट है कि इस चीज को पाने के लिए आपको राजनीति की 'गुड बुक' में तो शामिल होना ही पड़ेगा। इसमें दाखिला योग्यता और काम के आधार पर कम, इस आधार पर ज्यादा मिलता है कि आप सत्ता के कितने विश्वासपात्र हैं। हमारी सिविल सोसायटियों और आंदोलनकारी समूहों का फिलहाल सारा ध्यान देश की राजनीतिक प्रणाली में सुधार लाने की ओर है। कोई दो मत नहीं कि इसके सुधरने पर प्रशासनिक सुधार स्वमेव आ जाएगा, लेकिन वह तो जब होगा तब होगा। तब तक के लिए तो इसके साथ ही कुछ ऐसा किया जाए कि लोगों का ध्यान प्रशासकीय प्रणाली की ओर भी जाए ताकि कुछ सार्थक सुधार संभव हो सके।
[लेखक डॉ. विजय अग्रवाल, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं]
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