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    वीतराग

    By Edited By: Updated: Thu, 31 May 2012 09:54 AM (IST)

    जो अहम राग के साथ होता है वही विराग में होता है। इसलिए राग से बड़ा संकट है विराग। भय और क्रोध दोनों इन्हीं राग और विराग के वंशज हैं। राग, क्रोध और भय से रहित व्यक्ति के अंदर ही अनन्य भाव का जन्म होता है। अन्य नहीं यानी अनन्य के बोध को उपलब्ध व्यक्ति ही परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो सकता है। इसे ही वीतराग अवस्था कहते हैं। संसार के छूटने पर जो बचता है वही सार है असार का। गीता कहती है-जो लगाव के पार अर्थात जो राग, भय, क्रोध और लोभ के पार चला जाता है वही वीतरागी है। जो शत्रु, मित्र, अपना, पराया इन सब रेखाओं से पार चला जाता है वही द्वंद्वातीत भी हो जाता है। वीतरागी अकंप होता है उसे रूप रिझाता नहीं, कुरूपता डराती नहीं। जीवन उसे बांधता नहीं, मृत्यु मुक्त नहीं करती। वह जीता है सतत में। प्रतिपल जीवन राग और विराग के बीच की व्यवस्था है। संसार इन दोनों के बीच फैला वह आंगन है जहां जो भी घटता है उसका परिणाम उसे भोगना ही पड़ता है जो उसके परिसर से जुड़ा है। हमारा मन जब रागी होता है वह वस्तुओं को, संसार को, पकड़ता है पर जब विरागी होता है तो वह उन्हीं को छोड़ता है। छोड़ना आसक्ति से विरक्त होना नहीं है। यह केवल देहरी से आंगन तक की यात्रा है। राग और आंगन अपनी ओर खींचता है। राग देहरी की तरह आंगन का दूसरा सिरा है। दोनों संसार-सिंधु के दो छोर हैं। जो इनसे पार की बात करता है वह होता है वीतरागी। राग और विराग दोनों जिसके लिए बीते दिन की बात हो जाएं वह ही वीतराग हो सकता है। अज्ञात, अपरिवर्तित, अचंचल श्चोत के सहारे राग में परिवर्तित प्रवाह में भी वह जीता है। इस स्थिति के उपलब्ध होने का एक ही सूत्र है-मैं का विसर्जन। मैं ही शरीर का बोध है। शरीर वह सीमा है जहां राग और विराग की सीमाएं आमने सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। मैं और मेरा का सतत संघर्ष चलता रहता है। जब यह बोध हो जाता है कि यह शरीर उस वृहद सिंधु की तरंग की एक बूंद है तो मन सागर हो जाता है। राग, विराग के किनारे डूब जाते हैं और साधक या व्यक्ति वीतरागी होकर खिल उठता है।

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    डॉ. जीवन शुक्ल

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