प्रसन्नता का रहस्य
प्रसन्नता मनुष्य के सौभाग्य का चिह्न है। कहते हैं जो व्यक्ति हर समय प्रसन्नचित्त रहता है उसके ऊपर परमात्मा की विशेष कृपा रहती है। एक प्रसन्नचित्त मुख भी दूसरी आत्माओं को प्रसन्नता की अनुभूति कराता है। प्रसन्नता एक आध्यात्मिक वृत्ति है, एक दैवीय चेतना है। सत्य तो यह है कि प्रमुदित मन वाले व्यक्ति के पास लोग अपना दुख-दर्द भूल जाते हैं। देवदूत कोई और नहीं, मुदितात्मा वाले ही व्यक्ति होते हैं, जो अपने मुखमंडल की आभा द्वारा संताप हरते रहते हैं। जो बाहर से गरीब हैं, अभावग्रस्त हैं यदि वह आनंदित हैं तो वह सुखी रहेगा। कोई भी असुविधा उसे दुखी नहीं कर सकती। जीवन में कुछ न होने पर भी यदि किसी का मन आनंदित है तो वह सबसे संपन्न मनुष्य है। आंतरिक प्रसन्नता के लिए किन्हीं बाहरी साधनों की आवश्यकता नहीं होती। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ-साहूकारों के समीप सुख-सुविधाओं के प्रचुर साधन होते हुए भी वे दुखी रहते हैं, क्योंकि प्रसन्नचित्त व्यक्ति एक झोपड़ी में भी सुखी रह सकता है और चिंतित व्यक्ति राजमहल में भी दुखी। प्रसन्न मन ही अपनी आत्मा को देख सकता है, पहचान सकता है एवं उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। अब आप सोचेंगे भला प्रसन्नचित्त व्यक्ति ईश्वर के समीप कैसे हो सकता है? सत्य तो यह है कि जो विकारों से जितना दूर रहेगा, वह उतना ही प्रसन्नचित्त रहेगा। काम, क्त्रोध, लोभ, मोह, छल-कपट उससे बहुत दूर होंगे। शुद्ध हृदय वाली आत्मा सदैव ईश्वर के समीप रह सकती है। हर कोई चाहता है कि उसका भविष्य उज्जवल बने, सदा प्रसन्नता उसके जीवन में हो। वह परिस्थितियों का वह दास न हो। परंतु यह संभव करने का प्रयत्न करना छोड़ उसने तो यह मान लिया कि यह तो असंभव है। ऐसा हो ही नहीं सकता। इच्छा की पूर्ति तनिक भी असंभव नहीं है यदि हम अपने विचारों पर नियंत्रण करना सीख लें एवं कुविचारों को हटाना। सद्विचारों में एक आकर्षण शक्ति होती है जो सदैव हमें प्रसन्न ही नहीं, बल्कि परिस्थितियों को भी हमारी दास बना देती है।
-स्मिता द्विवेदी
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