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    व्रत का मतलब

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    Updated: Tue, 28 Feb 2012 07:32 AM (IST)

    व्रत का अर्थ है धारण करना, यानी संकल्प लेना। व्रत में संयम, संकल्प और नियम निहित होता है। व्यक्ति को अपने जीवन में किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए संकल्प और नियमों की आवश्यकता पड़ती है। संकल्प से ही संयम जागृत होता है। जितना संकल्प मजबूत होगा, व्यक्ति उतना ही संयमित जीवन जी सकने की ऊर्जा अपने अंदर विकसित कर सकता है। व्रत से अंत:करण की शुद्धि होती है। व्रत मानसिक शांति की दिशा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। व्रत में निराहार रहने से शरीर को वसा मिलना बंद हो जाता है और पहले से मौजूद वसा का उपयोग होने लगता है। इस प्रक्रिया में शरीर में जुट गईं मृत कोशिकाएं धीरे-धीरे नष्ट होकर शरीर से बाहर आ जाती हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य की दृष्टि से निराहारी व्रत लाभप्रद होता है। कायिक व्रत, वाचिक व्रत और मानसिक व्रत को अपनी व्रत साधना में समाहित करना आवश्यक है। कायिक व्रत में हम शरीर हिंसा या अत्याचार की भावना का त्याग कर दें-दूसरों को सताएं नहीं। वाचिक व्रत में किसी को अप्रिय वचन न बोलें, किसी की निंदा न करें- सत्यवादी बनने का प्रयास करें। मानसिक व्रत के अंतर्गत हम अपने मन के शुद्धीकरण की तरफ प्रयास करें। मन में काम, क्रोध, लोभ, मद, ईष्र्या, राग-द्वेष को त्याग दें। सबके भले की कामना को स्थायी सोच के रूप में अंगीकार करने का प्रयास करें। इन संकल्पों का शुद्ध मन और पवित्र आचरण से पालन करें। व्रत व्यक्ति के जीवन को पवित्र बनाने के लिए हैं। इसमें उपवास, ब्रह्मचर्य, एकांतवास, मौन, आत्मनिरीक्षण आदि की विधा से मन को निर्मल करके आचरण की शुद्धि का संकल्प लिया जाता है, जिससे दुर्गुणों से मुक्ति मिल सके और सद्गुण पनपने की प्रक्रिया शुरू हो सके। वह संकल्प अपने इष्ट-देव के समक्ष लेने का विधान है और फिर उस संकल्प के अनुरूप अपने आचरण को ढालने की कोशिश की जाती है। व्रत में तीन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है। पहला-संयम नियम का पालन। दूसरा देव आराधना और तीसरा लक्ष्य के प्रति जागरूकता।

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    [रमेश गुप्ता]

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