वेदों में सोम
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वैदिक वाड्गमय में 'सोम' का वर्णन आया है तथा उसके रस को पान करने व उसके प्रभाव का पर्याप्त उल्लेख है। उसकी स्तुतियां भी की गई हैं। ऋग्वेद के नवम मंडल व सामवेद के 'पवमान' पर्व में सोम विषयक मंत्र एकत्र हैं। मूलत: सोमपर्वतीय क्षेत्र में पाई जाने वाली कोई गुणकारी वनस्पति ही थी, जिसे पत्थरों से घर्षण करके उसके हरित वर्ण रस को निकाला जाता था फिर उसे एक घड़े में ऊनी कपड़े से छाना जाता था। इस तरह घड़े में एकत्र हरित रस को दूध में मिलाकर यज्ञ के अवसर पर उसका पान किया जाता था। शकर और मधु जैसे पदार्थ उसमें नहीं मिलाए जाते थे। इस रस में कोई मादक पदार्थ नहीं मिलाया जाता था। साथ ही वह तत्काल पान कर लिया जाता था। अत: मादकता आने की संभावना नहीं थी। इतना अवश्य है कि इसके पान से उत्साह, साहस और बल अत्यधिक बढ़ जाता था, जिससे इसके मादक होने का भ्रम लोगों में उत्पन्न हो जाता है।
वेदों के कुछ मंत्र इसके गुणों पर प्रकाश डालते हैं, यथा-'इन घूंटों ने मुझे पवन के समान उठा दिया है। क्या मैंने सोमरस पान किया है?' 'मैं पृथ्वी को उठा लूंगा और यत्र तत्र रख दूंगा।' इन प्रसंगों में मंदिर शब्द भी आया है किंतु उसका आशय 'आनंददायक' है। सभाओं और युद्ध में भी इसका पान किया जाता था। प्राचीन फारस के 'जरोष्ट्रियन' भी इसी प्रकार का एक पेय रखते थे, जिसे वह हाओमा कहते थे। भारतीय चिंतन और संस्कृति में वनस्पति और औषधियों का पोषक चंद्रमा है, जिसे सोम भी कहते हैं। इसे देवता का दर्जा दिया गया है और इस हेतु गुणवंती सोम वनस्पति को देवता मानते हुए स्तुतियां भी की गई हैं। इसे 'प्रकृति देवसत्ता' भी कहा गया है। यह गुणशालिनी रसवंती वनस्पति अब खोज से बाहर है, जैसे रामायण वर्णित 'संजीवनी।' इसकी प्राप्ति से मानव कल्याण का पथ प्रशस्त होगा। सामवेद में कहा गया है कि-'शरीर में प्रविष्ट हुआ सोमरस समस्त श्रेयों को प्राप्त कराता हुआ जीव के लिए शक्तिदाता होता है।' वह आसुरी भावों को दूर कर उसे दैवी भावों से भर देता है ।
[रघोत्तम शुक्ल]
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