आत्मतत्व
यह शरीर पांच तत्वों से बना है- मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। ये हमारे भौतिक शरीर के अवयव है। यह भौतिक शरीर स्थूल और नश्वर है। इसके परे एक और शरीर है। इसे जानना ही आत्मतत्व को जानना है। जीव जब संसार में आता है तो हम क्या है, हमारा अस्तित्व क्यों है, हमारा परिचय क्या है, आदि प्रश्न उसे उद्वेलित करते है। परंतु ज्ञान न होने के कारण वह इन प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूंढ़ पाता। कालांतर में सांसारिकता में फंसने के कारण इन प्रश्नों का उत्तर खोजना वह भूल जाता है। कुछ ऐसे लोग होते है जिनकेमस्तिष्क में ये प्रश्न बराबर उठते रहते है। यदि पूर्व जन्म के पुण्य उदय हुए और विवेकवान, ज्ञानवान साधक का सानिध्य मिला तो वह इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ ही लेता है। इसके लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु ही वह सक्षम व्यक्ति है जो उसे आत्मतत्व का ज्ञान करा सकता है।
आत्मतत्व क्या है? गुरु बताता है कि सूक्ष्म शरीर का यात्रा-पथ क्या है। यह जो हमारी श्वांस है प्रतिपल, प्रतिक्षण अनवरत चल रही है यह शुद्ध और निर्विकार तत्व है। यह संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। इसे ध्यानावस्था में एकांत में बैठकर श्वांस की गति पर ध्यान रखते हुए जाना जा सकता है। श्वांस का चलना ही जीवन है। इसका रुक जाना मौत है। ध्यानावस्था में बैठने पर मन में अनेक अच्छे, बुरे विचार आते है। उनकी परवाह किए बिना जितनी देर तक हम ध्यान में बैठते है उतना ही हमें हमारे प्रश्नों के उत्तर मिलते है। अगर हम ध्यान से देखें तो ज्ञात होगा कि जितनी क्रियाएं बाहर चल रही है उतनी ही क्रियाएं अंदर भी हो रही है। आंतरिक क्रियाएं बाह्य क्रियाओं को प्रेरित करती है। शुद्ध मन की क्रियाएं सन्मार्ग पर और अशुद्ध मन की क्रियाएं कुमार्ग पर ले जाती है। इस प्रकार मनुष्य की जीवन यात्रा सृष्टि के आदि से चली आ रही है। यह कब तक चलेगी किसी को पता नहीं। हां, इस यात्रा का आनंद वही ले सकता है जिसे आत्मतत्व का ज्ञान हो। आत्मज्ञान हो जाने के बाद मनुष्य अपने स्थूल शरीर से अलग भी जीता है। वहां मोह, सुख-दुख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क कुछ भी नहीं रहता। वह स्वयं सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ और अंतर्यामी हो जाता है।
[अलखनिरंजनलाल पथिक]
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