श्रम का महत्व
मनुष्य के पैदा होने के साथ ही भोजन का सिलसिला शुरू होता है, जो मृत्युपर्यत चलता रहता है। इसी को लक्ष्य करके संत सुंदरदास ने कहा है-पेट से बड़ा कोई नहीं है। राजा और रंक सभी को पेट ने जीता है। पेट के लिए ही व्यक्ति वर्षा, शीत-ताप सहता है। युद्ध भूमि में अपनी जान तक दे देता है। उसके पीछे इस 'पापी पेट' की मुख्य भूमिका है। इसी उदरपूर्ति की आग को विश्वकवि तुलसी ने अपने प्रारंभिक जीवन में भोगा था। लोगों को इसी भूख से प्रताड़ित होते देख उन्होंने कहा- 'स्वारथ अगमु, परमारथ की कहां चलि, पेट की कठिन जगु जीव को जवारू है।' इसीलिए कवि तुलसी ने 'श्रम' के महत्व को प्रदर्शित करते हुए कहा- यह कलिकाल सकलु साधन तरु, श्रम फल फरनि फरो सो। पै यहि जानिबों करम फल, भर-भर वेद परो सो॥ जननायक श्रीराम की महाकवि की दृष्टि में सफलता का संपूर्ण श्रेय 'श्रम' को जाता है। तुलसी के शब्दों में सेतुबंध निर्माण अधिकाधिक श्रम करकेही पूर्ण किया- 'राम भालु कपि कटक बटोरा, सेतु हेतु श्रम कीन्ह न थोरा।' राम लोकनायक है। शोषित पीड़ित जनों की मुक्ति के लिए वे चौदह वर्षो तक देश के पिछड़े इलाकों, ग्रामीण अंचलों तथा आदिवासी क्षेत्रों में भ्रमणवास करते हुए जन-जागृति और जन-मानसिकता के साथ-साथ लोक-सेना का संगठन करते है और उसकी सहायता से रावण का समूल नाश करते है। रामायण युग में जो काम राम ने किया है, क्या कमोवेश वही काम भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के उन्मूलन के लिए महात्मा गांधी ने नहीं किया? और क्या आधुनिक युग में वही काम सोवियत रूस में लेनिन ने नहीं किया? रामकथा हर आदमी को इसी संघर्ष और संगठन की प्रेरणा और संदेश देती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 'रामचरित मानस' का रूसी भाषा में पद्यानुवाद के लिए अलेकसई वरान्निकोव को वहां की सरकार ने सर्वोच्च सम्मान 'ऑर्डर ऑफ लेनिन' प्रदान किया था।
[डा. बद्रीनारायण तिवारी]
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