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    जीवन का सत्य

    By Edited By:
    Updated: Sun, 27 Nov 2011 12:08 AM (IST)

    यह सत्य है कि जब हम धर्म के मार्ग से विरत होते है तभी गलत मार्ग पर जाते है। धर्म हमें जीवन की शाश्वतता का आभास कराता है, जिससे हम अपने विवेक के आधार पर जीवन की सही राह पकड़ लेते हैं। गीता में भी कहा गया है कि कर्म पर हमारा अधिकार है, फल पर नहीं। फल की आशा से हम कठिन कार्य सरलता से कर लेते है, यही जीवन का अर्थ है। जीवन के साथ ही कर्म जुड़ा है। कर्म विहीन जीवन का कोई अर्थ नहीं। ऐसा भी नहीं कि भाग्य पर ही आश्रित रहा जाए और पुरुषार्थ न किया जाए। जिन्हें अपने कर्म पर विश्वास है उनके जीवन का सिद्धांत होता है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।

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    निज स्वार्थ से ऊपर उठकर जो कर्म किए जाते हैं उससे आचरण में श्रेष्ठता आती है, साथ ही दूसरों को प्रिय लगते है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर टिका है। भाग्य के आधार पर परमात्मा हमें कर्म फल देता है, किंतु हम अपने स्वार्र्थो के चलते अभीष्ट कर्मफल को प्राप्त करने की असफल चेष्टा करते है, जिसके कारण निराशा ही हाथ लगती है। जाने अनजाने जो भी कर्म हमारे द्वारा होते रहते हैं उनका प्रभाव जीवन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अवश्य पड़ता है। इस बात को सदैव ध्यान में रखते हुए हमें उन सात्विक कर्र्मो पर ध्यान देना होगा जो समाज के लिए उपयोगी हों। जीवन सतत् गतिशील है, गति में ही जीवन है। जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों ही परिस्थितियां आती है, हमें इनका दृढ़तापूर्वक निर्वहन करना है। जहां कहीं भी नैतिकता, सिद्धांतों और आदर्र्शो की बात होगी वहां प्रभु की कृपा से सुख, शांति, समृद्धि अवश्य मिलेगी, क्योंकि परमात्मा भी मानव से यही अपेक्षा करता है कि मानव मानव के साथ मानवता का व्यवहार करे। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। पात्रता अर्जित करने के लिए त्याग करना पड़ता है। दूसरे के हृदय में स्थान पाना है तो अपने समान ही उसके साथ व्यवहार करना होगा। यह मानव की प्रकृति है कि हम किसी अन्य व्यक्ति को कष्ट में देखकर स्वयं कष्ट का अनुभव करते है।

    [डॉ राजेंद्र दुबे]

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