द्वेष से बचें
द्वेष मन का वह कुभाव है जो दूसरे की उन्नति अथवा दूसरे के सुख से उत्पन्न होता है। यह शत्रुता को जन्म देता है। यह वह बीज है जिसमें ईष्र्या की खाद व अहित भाव का जल शत्रुता का वृक्ष उत्पन्न कर देता है, जो सबके लिए विनाशकारी है। इसका नाश किए बिना मन की शांति संभव नहीं है। मन एक समय में एक ही कार्य कर सकता है। वह अपने अंदर सुविचारों व सद्भावनाओं को उत्पन्न नहीं कर सकता। उसका सारा समय जलन में ही चला जाता है। जैसे आग में भौतिक वस्तुएं भस्म हो जाती है वैसे ही द्वेष की आग में अच्छे गुण व विचार जलकर भस्म हो जाते है। मानव द्वेष भाव से ग्रसित होने पर सत्कार्य नहीं कर सकता। द्वेष भाव के कारण बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धिहीन मानव पशु के समान हो जाता है। मानव साधन संपन्न होने से द्वेष भाव के वशीभूत हो दूसरे का नाश कर सकता है। द्वेष की भावना मन को दूषित कर देती है। द्वेष भाव मानव के बहुमूल्य समय को नाश कर देता है। मानव विवेक खोकर द्वेषवश दूसरे के अहित के विषय में सोचता है और स्वयं के समय का सदुपयोग नहीं कर पाता। अत: उसकी स्वयं की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
जो लोग द्वेषवश दूसरों को कटुवचन बोलते हैं वे अपनी ही जिज्जा गंदी करते है। वे स्वयं ही स्वयं की प्रगति में बाधक बनते है। द्वेष दावानल की भांति दूसरों के साथ खुद के सद्गुणों को भी भस्म कर डालता है। जैसे जंगल में आग लगने पर एक दूसरे के संपर्कसे सभी वृक्ष जलने लगते हैं, यहां तक कि निर्दोष पशु-पक्षी भी भस्म हो जाते है, उसी तरह ईष्र्यालु व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों में ईष्र्या उत्पन्न कर सकता है। ईष्या-द्वेष की भावना स्वयं का और दूसरे का नाश करती है। इसका उपाय एक ही है-सज्जनों की संगति। परोपकारी व सदाचारी व्यक्तियों का साथ द्वेष की भावना का विनाश कर देता है। सद्ग्रंथों के पढ़ने, सर्वहितकारी मनुष्यों का संग, संत महात्माओं व परोपकारी महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने व उनके रचित ग्रंथ पढ़ने से द्वेष भाव की औषधि निश्चय ही प्राप्त हो जाती हैं।
[सरस्वती वर्मा]
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