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    आहार का महत्व

    By Edited By:
    Updated: Mon, 31 Oct 2011 01:16 AM (IST)

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    भोजन को सात्विक, राजसिक और तमोगुणी, इन तीन भागों में विभाजित किया गया है। सात्विक भोजन को फलाहार की संज्ञा दी गई है। गाय के दूध से निर्मित पकवान- दूध, दही, मट्ठा, खोया आदि को भी फलाहार माना गया है। ऋषियों का ऐसा निर्देश है कि अन्न से निर्मित भोजन कम से कम ग्रहण करना चाहिए और लवण का उपयोग इसमें भी कम से कम। भोजन की सात्विकता स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन प्रदान करती है और स्वभाव को सरल, संयमित और उद्वेग रहित रखती है। जो लोग जीवन को सौद्देश्यपूर्ण जीना चाहते हैं उनको सात्विक सादा स्वल्प भोजन लेना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। चित्ता को प्रसन्न रखें। खूब चबा-चबाकर खाने से भोजन लार में जल्दी मिल जाता है। सामूहिक भोज में यह सब नहीं हो पाता। राजसिक भोजन बिना व्यायाम पचा सकने के उद्देश्य से तैयार किया जाता है। इसे सुस्वादु बनाने के लिए षट् रसों का सहारा लिया जाता है। मसाले या अचार प्राय: पाचन क्रिया को बिगाड़ देते है।

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    राजसिक भोजन में घी, तेल, वसा की अधिकता शरीर को स्थूलता, क्लीवता की ओर ले जाती है। मोटापा, शर्करा, अपच, हृदयरोग, कैंसर आदि व्याधियां भोजन के कारण राजसिक कही गई है। इस तरह के भोजन पचाने और रोगों से स्वयं को बचाने की आवश्यकता में परहेज और उपवास का उपचार करना चाहिए। भक्ति के लिए राजसिक भोजन त्याज्य बताया गया है। तामसिक भोजन अभक्ष्य और अतिभक्षण है। मदिरा अथवा किसी नशे की लत के कारण आवश्यकता से अधिक भोजन तामसिक है। गलत तरीकों से अर्जित भोजन निषिद्ध है। सात्विक भोजन एकांत में करना चाहिए। गरिष्ठ भोजन पचाने के लिए व्यायाम, भ्रमण करना चाहिए। भोजन में विटामिन षट्रस के पर्याय है और हमें इनसे वांछित कैलोरी शरीर रक्षण और पोषण के लिए मिल जाती है। राजसिक भोजन सबके लिए नहीं है और तामसिक भोजन प्रमाद, निद्रा और तंद्रावर्धक है। आलस्य और रोगकारक होने से त्याज्य कहे जाते है।

    [डॉ. राष्ट्रबंधु]

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