जीवन-संग्राम
मानव जीवन एक संघर्ष की गाथा है। संघर्ष करते मनुष्य के सामने अनेक संकट आते है और उनमें सफलता भी मिलती है। लोग डर कर संघर्ष करना छोड़ देते है, तब संकट अधिक गहरा जाते है और उन पर विजय पाना कठिन हो जाता है। संकटों से घबराने की जरूरत नहीं, उनसे निपटने का विचार दृढ़ करना चाहिए। समय पर संकट ऐसे छंट जाते है, जैसे शेर के आने पर हाथियों का दल तितर-बितर हो जाता है। संकट कितने ही बलवान क्यों न हों, समय आने पर वे तिरोहित हो जाते है। यह भाग्य की बात नहीं है, कर्म की गति है। जीवन में सद्कर्म ही संघर्षो से उबारता है। जीवन-संग्राम को सद्कर्मो से जीत सकते हैं।
मनुष्य समस्याओं से घिरा रहता है, उसके चारों ओर विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती है। तब वह सोचने को विवश होता है कि उससे क्या गलतियां हुई, कौन से पाप हुए। ऐसे में उसे सुधारात्मक उपायों को अपनाना पड़ता है। आत्मसुधार सबसे बड़ा मार्ग है और सरलता, सरसता व सफलता की तृप्ति भी। आत्मअनुशीलन से मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा पग-पग पर कठिनाइयां आती है। संसार में अरबों की संख्या में मनुष्य यह अनुभव करते है कि वे जीवन के उद्देश्यों से भटक गए है। वे सब बस जीते रहते है, चलते रहते है और एक दिन जिंदगी ठहर जाती है। उन्हे यह नहीं ज्ञात होता कि जीवन का अंतिम क्षण कब आ खड़ा होगा। वे असीमित इच्छाओं में इतने उलझे रहते है कि उद्देश्य को ज्ञात करने की जरूरत नहीं महसूस होती। जीवन मानव मन की चपलता से पल-पल प्रभावित होता है। वह इतना निर्बल हो जाता है कि बुराइयां उसके भीतर रोगों की तरह प्रवेश कर जाती है। अच्छाइयों के पास जाने का साहस खो बैठता है। भगवान की शरण में जाने से उसके दुख-दर्द दूर हो जाते है। परमात्मा तो आत्मसमर्पण से अपनी शरण प्रदान करते हैं। फिर जीवन रुक जाता है, जीव की लय आत्मा से लग जाती है। आत्मोद्धार का सच्चा पथ यहीं से आरंभ होकर यहीं समाप्त हो जाता है। जीव जब तक परमात्मा से दूर है, तब तक जीवन-संग्राम चलता रहेगा।
[डा. राघवेन्द्र शुक्ल]
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