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    जागने का अर्थ

    By Edited By:
    Updated: Thu, 17 Nov 2011 02:14 PM (IST)

    व्यक्ति प्रात:काल अंगड़ाई लेते हुए जागता है। उसे लगता है कि मैं जागा हुआ हूं, पर तथ्य यह है कि वह जागा हुआ नहीं है। उसका यह भ्रम आजीवन उसे दौड़ाया करता है। कोई धनार्जन की भूमिका बनाता रहता है। कोई लोकेषणा की पूर्ति में खोखला प्रदर्शन करता रहता है। इससे इतर कुछ पद, प्रतिष्ठा की दौड़ में ही लगे रहते हैं, कुछ प्रपंच में पूरा जीवन बिता देते है। कोई दूसरे की प्रगति देखकर ईष्र्या से जल-भुन जाता है।

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    सत्य जागे हुए व्यक्ति की पहचान नहीं है। यह मात्र जागते हुए को छलना है। वास्तव में ये सभी क्रियाएं नींद की पर्याय है। अधिकांश व्यक्ति सोए हुए है। सुविधाओं की लंबी सूची बनाकर उनकी पूर्ति में पूरा जीवन खपा देते है। उन्हे जाग्रत-स्वप्न की संज्ञा दी जा सकती है। इस जाग्रत स्वप्न से उबरने के लिए बाहर की नहीं भीतर की यात्रा अपेक्षित है। सच्चे अर्थो में जागरण तभी होता है जब व्यक्ति का जीवन में प्रपंच से वियोग होता है। तब वह आत्मानुभूति की परिक्रमा करता है। व्यक्ति पदार्थ को प्राप्त करना ही ध्येय मानकर उसकी प्राप्ति हेतु दौड़ता रहता है। इसे कभी जागा हुआ नहीं स्वीकार किया जा सकता। जागता वह है जो वैराग्य का मुखापेक्षी होता है। लोकसेवी जागता है। प्रेम के दीवाने जागते है जिन्हे केवल देने की ही सुधि रहती है, पाने की नहीं। जागने का अर्थ है स्वयं को जान लेना। जब व्यक्ति स्वयं को जान लेता है तो वह जागरण की बेला कही जाती है। संसार सो रहा है, नींद में गाफिल है। जाग्रत स्वप्न को कहता है हम जागे हुए है। जागरण ही मानव जीवन की सार्थकता है। सामान्यजन मानव जीवन को कैसे सार्थक किया जाए, इस बात को जानते ही नहीं और जानने की कोशिश भी नहीं करते। यह मानव जीवन भोग के लिए नहीं मिला। जो यह नहीं सोचते हैं उन्हें जीवन के अंतिम समय में पछताना पड़ता है, जब शरीर पूरी तरह असमर्थ हो जाता है। समय रहते यदि हम अपने आपसे और मानव जीवन के उद्देश्य से भलीभांति परिचित हो गए तभी हम अपना जीवन सार्थक कर सकेंगे।

    [धनंजय अवस्थी]

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