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    शाश्वत आनंद

    By Edited By:
    Updated: Wed, 11 Feb 2015 06:35 AM (IST)

    यह सामान्य मन की प्रक्रिया है कि वह साधन और लक्ष्य को पृथक-पृथक देखता है। मन की इसी प्रक्रिया के का ...और पढ़ें

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    यह सामान्य मन की प्रक्रिया है कि वह साधन और लक्ष्य को पृथक-पृथक देखता है। मन की इसी प्रक्रिया के कारण मानव लक्ष्य की आशा में जीवन के प्रतिपल आनंद को विलीन कर देता है और जब लक्ष्य प्राप्ति भी हो जाता है तो उससे भी संतुष्ट नही होता, बल्कि पुन: नवीन लक्ष्य को निर्मित कर उसकी प्राप्ति के लिए जीवन को बलिवेदी पर लगा देता है।

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    जीवन पर्र्यंत यही प्रक्त्रिया चलने के बाद जीवन के अंतिम छोर पर उसे आभास होता है कि उसे तो कुछ प्राप्त ही नहीं हुआ और जीवन भी समाप्त हो गया, तो सिर्फ हाथ मलने के अतिरिक्त शेष कुछ नहीं रहता। वर्तमान परिवेश में भौतिकता के नशे में चूर प्रत्येक व्यक्ति धन कुबेर बनने की प्रबल इच्छा लिए जीवन के रस को भूल गया है। दिन-रात इकाई, दहाई और सैकड़ा में उलझे व्यक्ति के पास आत्म-साधना के लिए समयाभाव है, जबकि धनार्जन के लिए वह समस्त मर्यादाएं त्यागकर उत्सुक होता है। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर मानव को कितना धन चाहिए, जो उसके जीवन की तृष्णाओं को पूर्णकर सके?

    आखिरकार इसी धन के लिए तो उसने प्रसन्नता के समस्त द्वार बंद कर स्वयं को मशीन बनाया हुआ है। जब तक मानव अपने तथा परिवार के भरण-पोषण के लिए सीमित साधनों से आय अर्जित करता रहा, तब तक वह सुखमय जीवन का स्वामी बना रहा, लेकिन जब वह येन-केन-प्रकारेण धनार्जन कर लक्ष्यों की प्राप्ति की अंधी दौड़ में शामिल हो गया, तो उसकी प्राप्ति में उसने जीवन रस खो दिया। उसने कल-कल करती जीवन सरिता को एक पोखर में परिवर्तित कर दिया। धन के प्रति जरूरत से ज्यादा आसक्ति ने मानव को असली आनंद से दूर कर दिया। इस कारण मानवीय रिश्ते तार-तार हो गए और समाज से संस्कार व मूल्य विलुप्त हो गए। संक्षिप्त रूप से मानव मन की सामान्य प्रक्त्रिया ने भस्मासुर का रूप लेकर जीवन को ही भस्म कर दिया। जिस मन पर मानव का स्वामित्व होना चाहिए था, वह उसका मात्र दास बनकर रह गया। बेहतर यही रहेगा कि मानव आत्मपीड़क न बनकर आत्मसाधक बने और भौतिक लक्ष्यों के स्थान पर आध्यात्मिक लक्ष्य निर्मित कर ज्ञान से इंद्रियों से पार पाए। परमात्मा सर्वत्र है, बशर्ते आपके पास 'दृष्टि' हो।

    [अनीता पोखरियाल]