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    दया का भाव

    By Edited By:
    Updated: Wed, 28 Jan 2015 05:37 AM (IST)

    गौतम ऋषि ने मनुष्य के लिए आवश्यक संस्कारों का निर्देश देते हुए आठ आत्मगुणों पर बल दिया है। उन्होंने

    गौतम ऋषि ने मनुष्य के लिए आवश्यक संस्कारों का निर्देश देते हुए आठ आत्मगुणों पर बल दिया है। उन्होंने 'दया सर्वभूतेषु' कहकर यानी सभी मनुष्यों के लिए दया को प्रथम स्थान प्रदान किया है। दया का भाव क्या है? दुखी जनों का दुख दूर करने की अभिलाषा को दया कहते हैं। दया के बगैर इस संसार का संचालन संभव नहीं है। बालक का जन्म होते ही माता सर्वप्रथम उस पर दया करती है। माता की सदैव इच्छा रहती है कि मेरा बच्चा कभी भूखा न रहे, बीमार न पड़े, मुस्कराता व साफ-स्वच्छ रहे। इसी दया से प्रेरित होकर वह स्वयं अनेक कष्ट सहकर बच्चे का लालन-पोषण करती है। इसी तरह गुरु यदि दया कर दे तो सामान्य शिष्य भी शास्त्र-पारंगत हो सकता है।

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    दयावान के शासन में समस्त प्रजा अपने को सुखी मानती है। हममें दया है, लेकिन वह सीमित है। मनुष्य ज्ञानवान अवश्य है, परंतु सर्वज्ञ नहीं। अज्ञानवश मनुष्य किसी से राग और किसी से द्वेष रखता है। इसीलिए संसारी मनुष्य की दया की सीमा होती है। ज्ञान के संदर्भ में शास्त्र का मत है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित होने से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। आकाश सीमा में बंधा हुआ नहीं है। कहीं भी हम आकाश के अभाव का अनुभव नहीं कर सकते। हमारी सीमित दया का भी कोई प्रतियोगी अवश्य है, जो अव्यक्त, नित्य और सर्वज्ञ है। वही समान रूप से संपूर्ण जीवों का हित करता है। लौकिक माता-पिता तो अपने परिवार पर ही दया करते हैं, परंतु प्रभु तो सर्वत्र दया करते हैं। प्रभु सारे संसार के पिता हैं। वे भक्तों के अंत:करण में बैठकर अपने ज्ञानदीप से हमें प्रकाश दे रहे हैं। इसलिए हमें दया के दायरे को परिवार की सीमाओं से बाहर निकालना होगा।

    सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव रखें। यह समझें कि दया मनुष्य जाति को दिया गया एक ऐसा गुण है, जो किसी वरदान से कम नहींहै। शास्त्रों में मानव जाति के अलावा अन्य जीव-जंतुओं पर भी दया करने के महत्व को रेखांकित किया गया है। हम कष्ट आने पर दूसरों से दया चाहते हैं। प्रभु भक्ति मात्र से संतुष्ट होकर कष्टों का निवारण करते हैं। भगवान् की भव्य-भक्ति का आश्रय लेकर उसकी दया प्राप्त करने से ही मनुष्य-जन्म सार्थक होगा।

    [डॉ. विजयप्रकाश त्रिपाठी]

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