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    इंद्रिय निग्रह

    By Edited By:
    Updated: Fri, 16 Jan 2015 05:13 AM (IST)

    इंद्रिय निग्रह के दो भेद हैं- अंत:करण और बहि:करण। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त-इनकी संज्ञा अंत:करण है ...और पढ़ें

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    इंद्रिय निग्रह के दो भेद हैं- अंत:करण और बहि:करण। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त-इनकी संज्ञा अंत:करण है और दस इंद्रियों की संज्ञा बहि:करण है। अंत:करण की चारों इंद्रियों की कल्पना भर हम कर सकते हैं, उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन बहि:करण की इंद्रियों को हम देख सकते हैं। अंत:करण की इंद्रियों में मन सोचता-विचारता है और बुद्धि उसका निर्णय करती है। कहते हैं, 'जैसा मन में आता है, करता है।' मन संशयात्मक ही रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित्त अनुभव करता व समझता है। अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान समझते हैं, पर शास्त्र उसको स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है। बहि:करण की इंद्रियों के दो भाग हैं- ज्ञानेंद्रिय व कर्मेद्रिय। नेत्र, कान, जीभ, नाक और त्वचा ज्ञानेन्द्रिय हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आंख से रंग और रूप, कानों से शब्द, नाक से सुगंध-दुर्गंध, जीभ से स्वाद-रस और त्वचा से गर्म व ठंडे का ज्ञान होता है। वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय और गुदा-यह पांच कर्मेन्द्रियां हैं। इनके गुण अशिक्षित व्यक्ति भी समझता है, इसलिए यहां पर इसकी चर्चा ठीक नहीं। जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है, वही जितेंद्रिय कहलाता है। जितेंद्रिय होना साधना व अभ्यास से संभव होता है। हमें इंद्रिय-निग्रही होना चाहिए। जो मनुष्य इंद्रिय-निग्रह कर लेता है वह कभी पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने वाली इंद्रियों के फेर में नहीं पड़ सकता। मनुष्य के लिए इंद्रिय-निग्रह ही मुख्य धर्म है।

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    इंद्रियां बड़ी प्रबल होती हैं और वे मनुष्य को अंधा कर देती हैं। इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्य को युवा मां, बहिन, बेटी और लड़की से एकांत में बातचीत नहीं करनी चाहिए। मानव हृदय बड़ा दुर्बल होता है। यह बृहस्पति, विश्वमित्र व पराशर जैसे त्रषि-मुनियों के आख्यानों से स्पष्ट है। सदाचार की जड़ से मनुष्य सदाचारी रह सकता है। सच्चरित्रता और नैतिकता को ही मानव धर्म कहा गया है। जो लोग मानते हैं कि परमात्मा सभी में व्याप्त है, सभी एक हैं, उन्हें अनुभव करना चाहिए कि हम यदि अन्य लोगों का कोई उपकार करते तो प्रकारांतर से वह अपना ही उपकार है, क्योंकि जो वे हैं, वही हम हैं। इस प्रकार जब सब परमात्मा के अंश व रूप हैं, तो हम यदि सबका हितचिंतन व सबकी सहायता करते हैं, तो यह परमात्मा का ही पूजन और उसी की आराधना है।

    [डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी]