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    संस्कृत और संस्कृति

    By Edited By:
    Updated: Sun, 23 Nov 2014 06:20 AM (IST)

    केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा की जगह संस्कृत पढ़ाए जाने के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के फैसले

    केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा की जगह संस्कृत पढ़ाए जाने के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के फैसले ने एक नई अकादमिक बहस को जन्म दे दिया है। बहस सिर्फ इसी पर नहीं हो रही है कि जर्मन की जगह संस्कृत को क्यों अपनाया गया, बल्कि इस पर भी कि मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने यह फैसला बीच सत्र में क्यों लिया? इस विषय पर सवाल उठने का एक कारण केंद्र में भाजपा की सरकार का होना भी है, क्योंकि इस फैसले को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़कर देखा जा रहा है। संघ एक लंबे अर्से से शिक्षा व्यवस्था में संस्कृत को महत्व देने पर जोर देता रहा है। संघ के एक प्रचारक ने केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत को शामिल करने के फैसले का समर्थन करते हुए यह कहा कि भारत और संस्कृत एक-दूसरे के पर्याय हैं और इस भाषा को जाने बिना कोई भी भारतीय कैसे हो सकता है? इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता का आधार संस्कृत भाषा ही है। जिन वेद, उपनिषद जैसे ग्रंथों को भारत की पहचान माना जाता है वे संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं और कोई भी इस भाषा को जाने बिना उनके मर्म को नहीं समझ सकता। समय के साथ जैसे-जैसे संस्कृत का प्रसार कम होता गया वैसे-वैसे वेद-उपनिषद भी लोगों की स्मृति से ओझल होते गए। परिणाम यह हुआ कि जो ज्ञान इन ग्रंथों में है उसका पूरा लाभ समाज को नहीं मिल पा रहा है।

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    संस्कृत की अपनी कुछ जटिलताएं हैं, लेकिन दुनिया में ऐसी कौन सी भाषा है जिसमें कुछ जटिलताएं न हों। संस्कृत ने धीरे-धीरे अपनी पहचान खोई है। मुगल शासन के पहले तक संस्कृत पठन-पाठन का माध्यम होने के साथ-साथ भारतीय समाज में खूब प्रचलित थी, लेकिन अरबी-फारसी के बढ़ते प्रभाव के बीच संस्कृत हाशिये पर जाती रही। मुगल शासन में राजकाज की भाषा अरबी-फारसी थी और यह स्वाभाविक है कि जिस भाषा को शासकीय सहयोग-संरक्षण मिलता है वह अन्य भाषाओं की तुलना में कहीं अधिक तेजी से फलती-फूलती है। जहां तक हिंदी का सवाल है तो वह वैदिक भाषा का ही परिष्कृत रूप है। संस्कृत, पाली, प्राकृत से लेकर देवनागरी लिपि तक का उसका सफर सदियों पुराना है। हिंदी आज जिस मुकाम पर है उसे देखते हुए वह एक बड़ी हद तक भारतीय संस्कृत की पहचान बन गई है। किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत भाषाओं के मामले में कई जटिलताओं से भरा हुआ है। जिस देश में चार कोस पर भाषा बदल जाने की मिसाल दी जाती हो वहां ऐसी जटिलताएं स्वाभाविक ही हैं। वर्तमान में देश में लगभग दो दर्जन आधिकारिक भाषाएं हैं और अनेक यह दर्जा पाने की होड़ में हैं। स्पष्ट है कि भारत को एक भाषा से जोड़कर नहीं देखा जा सकता।

    संस्कृत को हर भारतीय भाषा की जननी माना जाता है और दिलचस्प यह है कि केंद्रीय विद्यालयों में जिस जर्मन की जगह संस्कृत पढ़ाने के आदेश दिए गए हैं उसमें भी संस्कृत के अनेक शब्द हैं। पिछली दो-तीन शताब्दियों से देश के एक बड़े हिस्से में अंग्रेजी और हिंदी का ही बोलबाला है। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजी का दायरा और अधिक बढ़ा और इस हद तक बढ़ा कि अंग्रेजी को पढ़े-लिखे तथा सभ्य होने की निशानी मान लिया गया। अंग्रेजी और कुलीनता को एक-दूसरे का पर्याय मान लिए जाने का परिणाम यह हुआ कि इस भाषा के प्रति देशवासियों का रुझान तेजी से बढ़ा। चूंकि अंग्रेजी की बढ़त पर अंकुश लगाने और हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं को महत्व देने के प्रति गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए इसलिए देश आज भारत और इंडिया के रूप में दो हिस्सों में बंटा नजर आ रहा है।

    केंद्रीय विद्यालय सीबीएसई यानी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत आते हैं, जो मुख्य रूप से एक अंग्रेजी प्रधान बोर्ड है। अंग्रेजी की प्रधानता के कारण ही इसकी छवि एक कुलीन बोर्ड की बन गई है। केंद्रीय विद्यालयों के छात्रों और अभिभावकों का एक बड़ा वर्ग यह मान रहा है कि जर्मन की जगह संस्कृत पढ़ने से उन्हें रोजगार की प्रतिस्पर्धा में कोई लाभ नहीं मिलेगा। इस दलील को एकदम नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि आज के युग में हर कोई अच्छी नौकरी अथवा व्यवसाय चाहता है और संस्कृत उन्हें शायद यह अवसर न प्रदान कर सके। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि संस्कृत आज बोलचाल की भाषा नहीं रह गई है और मुट्ठी भर लोग ही ऐसे होंगे जो इस भाषा के जरिये अपनी आजीविका कमाने में समर्थ होंगे। संस्कृत तमाम संपन्नता के बावजूद अपनी प्रासंगिकता बचा नहीं सकी है। संस्कृत सिर्फ समाज से ही ओझल नहीं हुई, बल्कि स्कूली शिक्षा में भी जर्मन, फ्रेंच आदि विदेशी भाषाओं ने उसका स्थान ले लिया है। केंद्र सरकार की मानें तो उसने इसी विसंगति को दूर किया है। सीबीएसई बोर्ड की एक बड़ी कमजोरी यह है कि उसमें हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाएं एक विषय के रूप में तो सम्मिलित हैं, लेकिन अध्ययन का माध्यम नहीं बनाई गई हैं। यह स्थिति तब है जब हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं अंग्रेजी के मुकाबले बोलचाल में अधिक प्रचलन में हैं और विद्यार्थियों के लिए विषयवस्तु को समझने में अधिक मददगार हो सकती हैं। जब सरकारी स्तर पर हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को कामकाज का माध्यम नहीं बनाया जा पा रहा है तब फिर एक भाषा के रूप में संस्कृत की पढ़ाई के निर्णय का क्या औचित्य है? क्या इससे कोई लाभ मिलेगा? क्या संस्कृत को केवल इसलिए बढ़ावा दिया जा रहा है, क्योंकि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे में है और भाजपा सरकार के च्यादातर मंत्री संघ की पृष्ठभूमि वाले हैं?

    यदि केंद्र सरकार वास्तव में संस्कृत को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे विद्यार्थियों पर इस भाषा का बोझ डालने के बजाय उन लोगों को छात्रवृत्ति जैसे तरीकों से प्रोत्साहित करना चाहिए जो संस्कृत में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं। संस्कृत के पक्ष में इस दलील को खारिज नहीं किया जा सकता कि भारत और भारतीयता से इसका विशिष्ट नाता है। यह सच है कि संस्कृत में हमारे देश की आत्मा बसती है, लेकिन हम आज के परिवेश और आवश्यकताओं की भी अनदेखी नहीं कर सकते। अपनी संस्कृति को समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसे आम बोलचाल की भाषा में जाना-समझा जाए। दो-तीन वर्ष संस्कृत की पढ़ाई से उन्हें अपनी संस्कृति के बारे में शायद ही कोई ठोस ज्ञान हो सके। वेद-उपनिषद के ज्ञान तक पहुंचने के लिए उन्हें संस्कृत का गहन अध्ययन करना होगा और आज के जमाने में यह संभव नहीं कि विद्यार्थी केवल वेद-उपनिषद और अन्य प्राचीन ग्रंथ पढ़ने के लिए संस्कृत का इतना गहन अध्ययन करें। इसके लिए उन्हें स्कूल-कालेज से निकलकर विश्वविद्यालयों में भी संस्कृत विषय का अध्ययन करना होगा। हमारे नीति-नियंताओं को इस पर ध्यान देना चाहिए कि देश में अपनी संस्कृति का गहन अध्ययन करने और उसके प्रचार-प्रसार में योगदान देने वाले लोगों की कमी क्यों होती जा रही है? यह प्रत्येक सरकार की जिम्मेदारी है कि वह देश की सांस्कृतिक धरोहर बचाने के लिए लोगों को महाविद्यालयों अथवा विश्वविद्यालयों में सांस्कृतिक विषयों के गहन अध्ययन और शोध के लिए प्रेरित करे। संस्कृत इस अध्ययन का एक महत्वपूर्ण पहलू होना चाहिए।

    [लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]