बदलाव की इबारत
वक्त के साथ किस तरह हालात बदलते हैं और साथ ही लोगों का नजरिया, इसका पता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के
वक्त के साथ किस तरह हालात बदलते हैं और साथ ही लोगों का नजरिया, इसका पता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अतिरिक्त उनके मंत्रियों के रुख-रवैये और कामकाज के प्रति आम जनता के भरोसे से भी जाहिर होता है। पिछले पांच माह में देश में बहुत कुछ बदला है, लेकिन जिस बात को आसानी से महसूस किया जा सकता है वह है लोगों का यह यकीन कि देश की बागडोर सही हाथों में है और वह बिगड़ी चीजों को बनाने के लिए ईमानदारी और पूरी प्रतिबद्धता से सक्त्रिय हैं। शायद यही कारण रहा कि दीपावली के ठीक पहले जब गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह कहा कि वह इस त्योहार पर आतंकी हमले की आशंका से इन्कार नहीं कर सकते तो इसे लेकर वैसे मातमी स्वर नहीं उभरे जैसे शिवराज पाटिल या सुशील कुमार शिंदे के ऐसे ही बयानों पर उभरे होते। यदि यही बात गृहमंत्री रहते हुए पाटिल या शिंदे ने कही होती तो उन पर देश को डराने की तोहमत मढ़ी जाती। राजनाथ सिंह के वक्तव्य पर ऐसा कुछ नहीं सुनाई दिया तो इसका कारण यही हो सकता है कि देश की जनता उनके रूप में एक सक्षम-सक्रिय गृहमंत्री को देख रही है। देश की अंदरूनी सुरक्षा के समक्ष उभरे तमाम खतरों के बावजूद इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आंतरिक सुरक्षा का परिदृश्य सुधरता दिख रहा है। एक ऐसे समय जब अलकायदा की ओर से दक्षिण एशिया में कथित तौर पर अपनी शाखा खोलने की गीदड़ भभकी दी गई हो तब आंतरिक सुरक्षा का तंत्र सुधरा दिखना महत्वपूर्ण है। इससे भी महत्वपूर्ण है आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार की ओर से दिखाई जा रही तत्परता। पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान जिले में बम विस्फोट के बाद राज्य सरकार की अनिच्छा के बाद भी इस मामले की जांच जिस तरह राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंपी गई वह एक दुर्लभ घटना है। यह फैसला मजबूत केंद्र सरकार की मजबूत इच्छाशक्ति से ही हो सका। यह कितना अच्छा है कि केंद्र सरकार को तृणमूल कांग्रेस के भीतरी-बाहरी समर्थन की कहीं कोई दरकार नहीं है। इस अच्छाई के लिए देश की जनता को खुद की भी पीठ ठोकनी चाहिए कि उसने केंद्र में बहुमत वाली सरकार चुनी।
आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर एक बड़ी कामयाबी नक्सल प्रभावित राज्यों में भी मिलती दिखाई दे रही है। नक्सली बंदूक छोड़कर हल भले ही न थाम रहे हों, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि वे बड़ी संख्या में समर्पण कर रहे हैं। पिछले छह माह में जितने नक्सलियों ने समर्पण किया है वह एक रिकार्ड है। शायद नक्सलियों तक यह जरूरी संदेश पहुंच गया है कि अब उनके प्रति किसी तरह की नरमी का व्यवहार नहीं होने वाला। मौजूदा राजनीतिक माहौल में इसके प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है कि नक्सलियों के प्रति गृहमंत्री के कड़े रुख के खिलाफ कोई उस तरह आवाज नहीं उठा सकता जैसे एक समय चिदंबरम के खिलाफ दिग्विजय सिंह ने उठाई थी। जब ऐसा हुआ था तब सबसे खराब बात यह हुई थी कि चिदंबरम को न तो पार्टी से सहयोग मिला था और न ही सरकार से। इसके चलते नक्सल विरोधी अभियान इतना धीमा पड़ा कि यह जानना कठिन हो गया कि ऑपरेशन र्ग्रीन हंट का क्या हुआ? राजनाथ सिंह के नेतृत्व में ऐसा कोई ऑपरेशन भले ही न चल रहा हो, लेकिन यह साफ है कि नक्सली पस्त हैं। ऐसा शायद इसलिए भी है, क्योंकि खुद गृहमंत्री न केवल मोटर चलाकर उनके गढ़ में पहुंचते हैं, बल्कि डंके की चोट पर यह भी कहते हैं कि पुलिस को नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान मानवाधिकारवादियों की परवाह नहीं करनी चाहिए।
गृह मंत्रालय का मानना है कि नक्सलियों ने मानवाधिकार समूहों के बीच अपनी पहुंच बना ली है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि उसकी इस मान्यता पर कोई हो-हल्ला नहीं मचा और जो इक्का-दुक्का स्वर उभरे भी उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। दरअसल जो काम सख्ती की मांग करते हैं वहां ढुलमुलपन के लिए कोई गुंजाइश नहीं हो सकती और न ही होनी चाहिए। यह शायद नक्सलियों के प्रति सख्ती का ही परिणाम है कि अब ऐसी आवाजें नहीं सुनाई दे रही हैं कि नक्सली तो अपने ही भटके हुए भाई-बंधु हैं। क्या वे पुलिस वाले हमारे भाई-बंधु नहीं थे जिन्हें नक्सलियों ने निर्ममता से मारा? नक्सलियों के प्रति नरमी न दिखाने में ही देश का हित है। असंख्य पुलिस कर्मियों की जान लेने वाले नक्सलियों को यह बताना जरूरी है कि वे शासन को हथियारों के बल पर नहीं झुका सकते। जिस तरह नक्सलवाद से निपटने के मामले में देश भरोसा कर सकता है कि नक्सलियों को सिर उठाने का मौका नहीं दिया जाएगा उसी तरह इस पर भी यकीन किया जा सकता है कि अब आतंकवाद से निपटते समय वोट बैंक की राजनीति आड़े नहीं आएगी। पिछले दिनों नेपाल यात्रा पर गए गृहमंत्री ने यह कहने में संकोच नहीं किया कि सीमांत क्षेत्र में कट्टरपंथी ताकतें सक्रिय हैं और उन पर निगरानी की जरूरत है। पांच माह पहले तक कोई देश के गृहमंत्री से इस तरह के बयान की भी अपेक्षा नहीं कर सकता था कि चीन भारत को आंख दिखाने की कोशिश न करे? राजनाथ सिंह ने केवल ऐसा बयान ही नहीं दिया, बल्कि चंद दिनों बाद यह भी घोषित किया कि भारत सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में चीन सीमा पर 54 नई चौकियां बनाना तय किया है। पाकिस्तान के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर चीन के खिलाफ भी कड़े बोल बोलना देश को भरोसा देने वाला है।
नि:संदेह अभी गंगा साफ नहीं हुई है, काला धन भी वापस नहीं आया है, रेलों में रेलम-पेल भी खत्म नहीं हुई है, सभी को 24 घंटे बिजली मिलनी भी नहीं शुरू हुई है और तमाम अन्य समस्याओं के साथ ही खराब सड़कें भी सुधरती नहीं दिख रही हैं, लेकिन बावजूद इसके विदेश, वित्ता, रक्षा और आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर उल्लेखनीय बदलाव नजर आ रहा है। जिन्हें भी शासन के इन महत्वपूर्ण मोचरें पर कोई बदलाव-बेहतरी नहीं दिख रही है वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रियों की आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]