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    सदाचार और विचार

    By Edited By:
    Updated: Wed, 16 Jan 2013 03:15 AM (IST)

    सत् अव्यय को आधार से युक्त करने पर सदाचार बनता है। जिसका अर्थ है अच्छा आचरण और व्यवहार। इसकी महत्ता सभी धर्मो में स्वीकार की गई है। मानव सभ्यता के आदिग्रंथ वेदों में भी सदाचार की महिमा, गुण और प्रभाव का विपुल भंडार है। त्रग्वेद के दशम मंडल में सप्त मर्यादाओं का उल्लेख है-हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण तथा पाप-सहायक दुष्ट। सप्तम मंडल में श्रुति कहती है कि हे मनुष्य, तू साहसी बनकर गरुड़ के समान घमंड, गीध के समान लोभ, चकवे के समान काम, श्वान के समान मत्सर, उलूक के समान मोह और भेड़िये के समान क्रोध को समझकर उन्हें मार भगा। नीति ग्रंथों में सदाचार के तेरह मूल सूत्र वर्णित हैं-अभय, मुदुता, सत्य, आर्जव, करुणा, धृति, अनासक्ति, स्वावलम्बन, स्वशासन, सहिष्णुता, कर्तव्यनिष्ठा, व्यक्तिगत संग्रह, संयम और प्रामाणिकता।

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    श्रुति में सदाचार के तीन आधार स्तंभ कहे गए हैं-अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। स्मृतिकार हारीत ने इसके तेरह भेद बताए हैं- ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्ति, सौम्यता, दूसरों को न सताना, अनुसूयता, मृदुता, कठोर न होना, मैत्री, मधुर भाषण, कृतज्ञता, शरण्यता, कारुण्य और प्रशांति। बौद्ध धर्म के पंद्रह सदाचार हैं। जैन धर्म में परमानंद की प्राप्ति के तीन साधन हैं-सद्विश्वास सत् ज्ञान तथा सदाचरण। मनु स्मृति के अनुसार सदाचार से कभी न नष्ट होने वाला धन प्राप्त होता है तथा शुभ लक्षणों से हीन होने पर भी सदाचारी शतायु होता है। आचार का जन्म विचार से होता है। मन संकल्प विकल्प करता रहता है। प्रयत्नशील इंद्रियां चंचल विचरण करती हैं। मन में शुद्ध विचार से उठने वाली तरंगों से शुभ कर्मो और सदाचार का जन्म होगा। ऋग्वेद की प्रार्थना है आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: अर्थात हममे सब ओर से शुभ विचारों का आगमन हो। इसका परिणाम सदाचार तथा विश्व से विश्व मानव के कल्याण का पथ प्रशस्त होगा।

    [रघोत्तम शुक्ल]

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