वैष्णव साहित्य ने देश के व्यक्तित्व का निर्माण किया है : बीपी सिंह
जागरण संवाददाता,नई दिल्ली : वैष्णव साहित्य ने देश के व्यक्तित्व का निर्माण किया है। यह साहित्य ऐसा
जागरण संवाददाता,नई दिल्ली :
वैष्णव साहित्य ने देश के व्यक्तित्व का निर्माण किया है। यह साहित्य ऐसा है जिसने हमेशा ही विभाजन का विरोध किया था। आज के समय में सभ्यता एवं राजनीति की विफलता के कारण वैष्णव साहित्य ही मार्गदर्शक का कार्य कर सकता है। यह बात प्रख्यात चिंतक एवं लेखक बीपी सिंह ने साहित्य अकादमी की ओर से आयोजित मध्यकालीन वैष्णव साहित्य विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में कही। उन्होंने कहा कि वैष्णव काल में देश ज्ञान के महत्वपूर्ण पायदान पर था, जबकि अब यह बिल्कुल विपरीत है। एक हजार वर्ष तक चली वैष्णव परंपरा को उन्होंने भारत के वर्तमान धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की बुनियाद बताया। उन्होंने कहा कि जब हमारा देश गहरे सांस्कृतिक संक्रमण से गुजर रहा था तब पूरे भारत में भक्ति आदोलन ने ही प्रतिरोध किया और हमारी महान संस्कृति की रक्षा की। उन्होंने कहा कि यही विद्रोह की सार्थक भावना बाद में भारतीय स्वतंत्रता आदोलन में भी कार्यकारी भूमिका अदा करती है।
प्रख्यात हिंदी विद्वान नंद किशोर आचार्य ने कहा कि एक कवि के रूप में मेरे लिए वैष्णव संवेदना को समझना महत्वपूर्ण है। उन्होंने दर्शन और साहित्य के पारिभाषिक शब्द बंधों से 'वैष्णव संवेदन' को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि पूरा भक्ति आदोलन काव्यप्रसूत है। वैष्णव साहित्य में ज्ञान अनुभूतिपरक है। वैष्णव साहित्य किसी तरह का वैराग्य पैदा नहीं करता, बल्कि जीवन की प्रक्रिया में पावनता की तलाश ही उसका उद्देश्य है। इसकी संवेदना संघर्षधर्मी है और वह जीवन जगत के आत्मबोध से प्रभावित है। उन्होंने वैष्णव परंपरा को महात्मा गाधी से जोड़ते हुए कहा कि यह परंपरा हिंसा के खिलाफ है। अगला सत्र मध्यकालीन राम काव्य परंपरा में वैष्णव चेतना पर केंद्रित था, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाडेय ने की। उन्होंने कहा कि यह चेतना मनुष्य को बेहतर बनाने वाली चेतना है। यह राम और शिव का समन्वय कराने वाली चेतना है। त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने समचित्तता, सर्वमयता, कारुणिकता, सर्वबोधता, मागलिकता, आध्यत्मिकता, रागात्मकता, कालबोधकता, कलाबोधकता, संवादात्मकता, एकोहम बहुस्याम:, सनातनता, आस्था, समन्वयता, सर्वग्राहिता आदि के आधार पर वैष्णव परिकल्पना को स्पष्ट किया।
अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि वैष्णव साहित्य ने हमारे मस्तिष्क में मूल्यों का ऐसा क्रम पैदा किया है जो आज तक हमारी स्मृति में है और एक सर्वधर्म समभाव वाले देश का निर्माण करता है। इस वैष्णव परंपरा में न सामंतवाद है, न ब्राह्माणवाद और न ही कोई कर्मकांड। वैष्णव साहित्य में केवल प्रेम की ही मूल संवेदना है। कार्यक्रम में साहित्यकार रमेशचंद्र मिश्र, बलदेव वंशी व राधेश्याम दुबे ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
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