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ये कैसी नई अवधारणा, ‘आइडिया आफ इंडिया’ को उखाड़ फेंकना और विघटन के बीज बोना

यह एक नयी साजिश है जिसे वैचारिक सोच उस वामपंथी उदारवाद और नेहरूवियन-मैकालेयन की अवधारणा से मिलती है जिसका मानना रहा है कि भारत की आजादी के संघर्ष के दौरान ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ हुई ‘प्रतिक्रिया’ के उत्पाद के रूप में भारत एक राष्ट्र बना।

By Jp YadavEdited By: Published: Sun, 29 May 2022 12:21 PM (IST)Updated: Sun, 29 May 2022 12:21 PM (IST)
ये कैसी नई अवधारणा, ‘आइडिया आफ इंडिया’ को उखाड़ फेंकना और विघटन के बीज बोना
ये कैसी नई अवधारणा, ‘आइडिया आफ इंडिया’ को उखाड़ फेंकना और विघटन के बीज बोना

नई दिल्ली [राजीव तुली]। हाल ही में सोच समझकर राष्ट्रीय विमर्श में एक मजेदार अवधारणा बनाने की कोशिश हुई। यह मजेदार इसलिए है क्योंकि इसका प्रतिपादन उस राजनीतिक पहचान की ओर से किया गया, जो दावा करता है कि उसने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई थी और फिर उसने कई सालों तक उस आंदोलन का राजनीतिक लाभ भी उठाया।

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इस अवधारणा को आगे बढ़ाने का इरादा उस विचार का बीजारोपण करना था कि भारत कभी एक राष्ट्र रहा ही नहीं। इस विचार को यह कहकर आगे बढ़ाया गया कि ऐतिहासिक तौर पर भारत मुख्यत: एक भौगोलिक निकाय रहा है और वह कभी सांस्कृतिक और एकीकृत राष्ट्र नहीं रहा। उसके मुताबिक भारत एक ‘‘राजनीतिक धारणा’’ रहा है, जो 1947 में एक राष्ट्र के रूप में सामने आया।

इस अवधारणा का समर्थन करने के लिए साजिशन संविधान का हवाला दिया गया और रेखांकित किया गया कि इसके अनुच्छेद 1 के मुताबिक भारत राज्यों का एक संघ है ना कि एक राष्ट्र। बाद में क्षेत्रवाद और उप-राष्ट्रवाद की भावना को भड़काया गया ताकि इस बिन्दु को विमर्श में लाया जा सके कि भारत, भारत नामक देश बनाने वाले विभिन्न उप-निकायों के समझौते का एक उत्पाद है। राज्यों का यह संघ 1947 में राज्य इकाइयों, देशी रियासत और संघ के बीच समझौते के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया।

इस धारणा के उत्साही पक्षसमर्थक अपने वैचारिक पालन पोषण की वजह से कुछ बुनियादी सच्चाई को विरूपित करते हैं और एक राष्ट्र के रूप में भारत के बनने की सभ्यतागत-ऐतिहासिक प्रक्रिया से जानबूझकर परहेज करते हैं। वे सुविधानुसार संविधान के अनुच्छेद 1 को नजरअंदाज करते हैं, जिसका कि वह अपने तर्कों के समर्थन में हवाला भी देते हैं। अनुच्छेद 1 कहता है कि इंडिया का नाम भारत है।

इंडिया को पारम्परिक रूप से भारत या भारतवर्ष के रूप में जाना जाता है। नाम से ही यह प्रतिबिंबित होता है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्थापना हमारे पूर्वजों ने की थी। यह नाम महाभारतकालीन महान राजा चक्रवर्ती भरत के नाम पर रखा गया था। भरत एक प्रसिद्ध शासक थे और वह भरत वंश के संस्थापक थे। उन्हें महाभारत के पांडवों और कौरवों का वंशज भी कहा जाता है। वह हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत और महारानी शकुंतला के पुत्र थे। महान राजा भरत ने संपूर्ण भारतवर्ष (आज के भारतीय उपमहाद्वीप) पर विजय प्राप्त की थी।

महान महाकाव्य महा-भारत में ही भारत नाम जुड़ा हुआ है। विष्णु पुराण, भारत के इस विचार को एक निर्धारित भौगोलिक स्वरूप देता है, जब वह कहता है कि भारत महासागर के उत्तर और बफीर्ली पर्वतों के दक्षिण में स्थित है, क्योंकि वहां भारतवंशी यानी राजा भरत के वंशज निवास करते हैं। भारतीय संविधान के निर्माता भी इस बात को पूरी तरह जानते थे कि एक राष्ट्र के रूप में भारत का अस्तित्व मुसलमानों और अंग्रेजों के काल से बहुत पहले से है, जिसे भारत कहा जाता है।

सांस्कृतिक तौर पर हमारे प्राचीन ग्रंथ प्रत्येक हिन्दू को चार धामों यानी बद्रीनाथ (उत्तर), रामेश्वरम (दक्षिण), द्वारका (दक्षिण) और पुरी (पूर्व) की यात्रा करने के कर्तव्य का निर्वहन करने को कहते हैं। ये चारों धाम चारों दिशाओं में एक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं और वह संस्कृति है भारत।

‘‘हम भारत के लोग’’ की भावना का अस्तित्व उदारवादी-साम्यवाद या नेहरूयुगीन ऐतिहासिक फरमानों वाले विचारों के जन्म के बहुत पहले से था। इसलिए हमारी सभ्यतागत प्रगति में बुनियादी सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने की कोशिश की गई और इसके लिए इस भावना को राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में आत्मसात किया गया। यह राष्ट्रीय संस्कृति ही हिन्दू संस्कृति है।

राष्ट्रवाद की भावना हिन्दुत्व की प्रकृति से जुड़ी हुई है। अलगाववाद के इन उपासकों को इतिहास की वास्तविकता से वाकिफ होना चाहिए और ऐतिहासिक तथ्यों के विरूपित और मनगढंत संस्करण से बचना चाहिए।

जब देश आजाद हुआ तब राष्ट्रवाद की दो धाराएं थीं। एक धारा के अनुसार भारत का अस्तित्व प्राचीन काल से था। दूसरी धारा तत्कालीन परिस्थितियों से उत्पन्न हुई, जहां भारत को राष्ट्र के रूप में ढूंढा जाने लगा। उस धारा का पूर्वानुमान था कि वृहद भारतीय राष्ट्रवादी संस्कृति के भीतर बहु-संस्कृति और बहु-क्षेत्र का अस्तित्व था। हर राज्य इकाई एक दूसरे और केंद्र से सहयोग करते हैं और एक दूसरे का पारस्परिक सहयोग करते हैं।

इस धारणा के उपासकों द्वारा जिस दूसरे तर्क को आगे बढ़ाया गया उसमें भारत को राज्यों का संघ बताया जाना शामिल है। इनके मुताबिक यह एक समझौते के परिणामस्वरूप था ना कि किसी और वजह से। सबसे पहले तो उन्हें अपने दिमाग से इस मानसिक व्याग्रता को बाहर निकालना चाहिए कि भारत, अमेरिका की तरह विभिन्न राज्यों के साथ आने और एक संघीय सरकार बनाने वाले उत्पाद की तरह है।

भारतीय संस्कृति में बहु-क्षेत्र, बहु-वर्ग, बहु-संस्कृति की भावना समाहित है और सभी का शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व भी रहा है। कई विभिन्न रियासतें भी थीं, जो राजनीतिक रूप से या तो उप-क्षेत्रीय, क्षेत्रीय या परा-क्षेत्रीय थे। इनमें अहोम, विजयनगर, चालुक्य, चोल, मराठा और सिख सहित अन्य शामिल हैं। हालांकि इसके बावजूद उनकी क्षेत्रीय भावनाएं कभी हावी नहीं हुई या उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा और एक राष्ट्र के रूप में भारत के प्रति उनकी भावना सर्वोपरि रही।

भारतीय संस्कृति ऐतिहासिक रूप से सभी को आत्मसात करने की रही है। कैसे बुद्ध, जैन और अन्य संस्कृतियां भारत में सदियों से सह-अस्तित्व में रहीं, यह इस सच्चाई को प्रमाणित भी करता है।

इसके अलावा, भारत को ‘‘राज्यों का संघ’’ कहे जाने के तर्क का स्वाभाविक उप-सिद्धांत, उस समझौते के फलस्वरूप है जिसमें यह मानना है कि इस समझौते को वापस लिया जा सकता है या उसे तोड़ा जा सकता है या अलग किया जा सकता है। यह खतरे से भरा हुआ है। भारत में उप-राष्ट्रवाद की भावना अपने ऐतिहासिक अतीत से विकसित हुई है और यह जैविक है ना कि मेकैनिक या फिर (कांटैक्चुअल) संविदात्मक है। भले ही उनकी विभिन्न उप-संस्कृति और उप-क्षेत्र रहे हों, लेकिन राष्ट्रवाद की भावना हमेशा बलवती रही।

संविधान अलगाव की इजाजत नहीं देता है और कानून के मुताबिक इसकी बात करना भी दंडात्मक अपराध की श्रेणी में आता है। ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ की वैचारिक उपासना अपने चरम पर है, जिसका कि लक्ष्य ही है भारत को खंडित किया जाए।

वामपंथी उदारवादियों की साजिश छद्म-धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ मिलकर भारत को इस रूप में पेश करना है कि वह एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि महज एक राजनीतिक निकाय है। यह आजादी के बाद के राष्ट्रवाद के मॉडल के खिलाफ भी है, जो भारत की राष्ट्र के रूप में प्रगति को आगे बढ़ाना चाहता है, वह भी राज्यों की प्रगति को नुकसान पहुंचाए बगैर।

इस मुद्दे को जानबूझकर आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि अलगाववाद और विखंडन का बीजारोपण किया जा सके। यही नहीं, उनकी कोशिश विभिन्न राज्यों के बीच के मतभेदों और राज्यों और केंद्र सरकार के मतभेदों को आगे बढ़ाना है ताकि भारत के विभाजन के अंतिम उद्देश्य को हासिल किया जा सके।

इसे चुनावी विमर्श का हिस्सा पहले ही बनाया जा चुका है, जहां इसी विचारधारा का एक मुख्यमंत्री दूसरे राज्यों के जनता का अपमान कर रहा है और कह रहा है कि ये ‘‘भैया लोग’’ (उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों क लिए इस्तमाल किया जाने वाला एक अपमानसूचक शब्द) उनके राज्य में काम नहीं कर सकते। यह ‘‘आइडिया आफ इंडिया’’ को उखाड़ फेंकना ही है। हमें इस धारणा को जी जान से समाप्त करना है।

(राजीव तुली एक स्वतंत्र स्तंभकार और टिप्पणीकार हैं। यहां व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं)।


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