दहेज प्रताड़ना कानून के दुरुपयोग पर क्या कह रहे हैं दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज, समाधान को लेकर जानिए विचार
दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) तलवंत सिंह का मानना है कि न कानून में बदलाव और न ही इसे शिथिल करने की जरूरत है। सामाजिक जवाबदेही से ही कानून के दुरुपयोग का हल निकल सकता है। दहेज प्रताड़ना कानून के दुरुपयोग और सुधार की आवश्यकता पर पूर्व न्यायमूर्ति से चर्चा की। सामाजिक जवाबदेही और पारिवारिक अदालतों की भूमिका पर भी उन्होंने अपने विचार रखे।

नई दिल्ली। बेंगलुरु में महिला और संबंधित अदालत पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए अतुल सुभाष द्वारा आत्महत्या करने की घटना ने एक बार फिर कानून में सुधार व संशोधन की आवश्यकता को लेकर नई बहस छेड़ दी है। एक बड़ा वर्ग दहेज निरोधक कानून की आड़ में वधु पक्ष द्वारा वर पक्ष को प्रताड़ित करने का हथियार बताकर इसे शिथिल किए जाने की मांग कर रहा है। दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने की सार्थक पहल वर्ष 1961 में लागू किए गए दहेज निरोधक कानून (दहेज लेना-देना) से हुई और वर्ष 1983 में आइपीसी में धारा-498 में संशोधन कर धारा-498 ए (दहेज प्रताड़ना) प्रविधान जोड़ा गया, ताकि ससुराल में प्रताड़ित की जाने वाली महिला को न्याय दिलाया जा सके, लेकिन समय-समय पर दहेज प्रताड़ना कानून का महिलाओं द्वारा किए जाने वाले दुरुपयोग करने की घटनाओं ने इस धारणा को बल दिया है। तमाम प्रयास के बावजूद दुरुपयोग समाप्त करने के बजाय कम करना भी संभव नहीं हो पा रहा है। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) तलवंत सिंह का मानना है कि न कानून में बदलाव और न ही इसे शिथिल करने की जरूरत है। सामाजिक जवाबदेही से ही कानून के दुरुपयोग का हल निकल सकता है। 35 साल से इस पेशे में रहे न्यायमूर्ति सिंह दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट में पारिवारिक अदालत के पहले जज के रूप में पदस्थ हुए थे। जिला न्यायालय स्तर पर भारत का पहला पेपरलेस ई-कोर्ट विकसित करने में उनका विशेष योगदान है। कानून के दुरुपयोग व इसमें सुधार के साथ ही सामाजिक जवाहदेही पर दैनिक जागरण के डिप्टी चीफ रिपोर्टर विनीत त्रिपाठी ने उनसे विस्तार से बातचीत की। पेश हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश...
सितंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में घरेलू हिंसा कानून और 498 ए को सबसे ज्यादा 'दुरुपयोग' किए जाने वाले कानूनों में से एक बताया है। एक कानून विशेषज्ञ के तौर पर आप इसे कैसे देखते हैं?
किसी भी कानून का पूरी तरह से दुरुपयोग रोकना प्रयोगात्मक रूप से संभव नहीं है। दहेज प्रताड़ना कानून को अन्य कानून के समान रखकर नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि बहुत-सी ऐसी महिलाएं भी हैं, जिन्हें प्रताड़ित किया जाता है। कई मामलों में शादी के दौरान दहेज नहीं लेने की बात होती है, लेकिन शादी के बाद महिला को यातनाएं दी जाती हैं। इसे रोकने के लिए सामाजिक तौर पर लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। अगर, अदालत में वही मामले आएं, जहां महिला के साथ गलत हुआ है तो न्याय की संभावना अधिक होगी। साथ ही अदालत पर मुकदमों का बोझ भी कम होगा।
एनसीआरबी के आंकड़ों के तहत 2020 में दहेज निषेध कानून के तहत 13 हजार से अधिक मामले दर्ज किए गए और हर दिन दहेज की वजह से 18 महिलाओं की मौत हो रही है। फिर भी इससे जुड़े कानून के दुरुपयोग पर सवाल उठते हैं। ऐसे में कानून को बनाए रखते हुए इसके दुरुपयोग को कैसे रोका जा सकता है?
कानून को कितना भी सख्त किया जाए, इससे अपराध नहीं रुकेगा। साढ़े तीन दशक के अपने कानूनी पेशे के अनुभव से मुझे लगता है कि परिवारों का टूटना और एकल परिवार की संस्कृति ने इस तरह के अपराध को बढ़ावा दिया है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि मोबाइल फोन का चलन भी इसका जिम्मेदार है। लोगों ने मोबाइल फोन के कारण आपस में बात करना बंद कर दिया है। नए शादीशुदा जोड़े भी आपस में बात नहीं करते हैं। ऐसे में पति की शिकायत महिला किससे करे, अब वह चैनल ही बंद हो चुका है। जो मामला आपस में बात करके सुलझाया जा सकता है, उसके लिए पुलिस के पास जाना पड़ता है। पुलिस के पास जाने से तो मामला और बिगड़ता है, पुलिस कैसे सुलझा सकती है।
क्या वैवाहिक विवाद के मामले कई सालों तक लंबित रहना भी कानून के दुरुपयोग का एक अहम कारण है?
देखिए, जब पारिवारिक अदालत बनाई गई थी, तब इसकी खूब सराहना हुई थी। कड़कड़डूमा कोर्ट में मैं ही पहला पारिवारिक अदालत का जज था। तब से लेकर आज तक मेरा यही मानना है कि हमने पारिवारिक अदालत पर अत्यधिक बोझ डाल दिया। सभी रेगुलर कोर्ट से मामलों को निकालकर पारिवारिक अदालत में भेज दिया गया और इसे देखने के लिए एक वरिष्ठ सत्र न्यायाधीश को रखा गया है। एक जज को हर दिन भरण-पोषण के 125 मामले करने होते हैं, जबकि यह उनका कार्यक्षेत्र नहीं है। तब भी मैंने यही कहा था कि एक पारिवारिक अदालत बनाइए और उसके नीचे दो मजिस्ट्रेट दे दीजिए। तलाक व बच्चों पर कानूनी हक का केस पारिवारिक अदालत में चलेगा और घरेलू हिंसा का मामला मजिस्ट्रेट कोर्ट में चलेगा। पहले भरण-पोषण मामला मजिस्ट्रेट सुनता था, लेकिन अब यह चैनल ही बंद हो गया। मजिस्ट्रेट कोर्ट के निर्णय को हाईकोर्ट में अपील करना होता है। केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते दिल्ली में तो फिर ठीक है, लेकिन गाजियाबाद की पारिवारिक अदालत के निर्णय के विरुद्ध पीड़ित महिला या बच्चा को इलाहाबाद हाईकोर्ट जाने को मजबूर होना पड़ता है। यह एक तरीके से अन्याय किया गया है। एक पारिवारिक कोर्ट में सत्र न्यायाधीश के नीचे दो मजिस्ट्रेट रखने से समस्या का समाधान एक ही जगह पर किया जा सकता है। सिर्फ इसी एक बदलाव से 90 प्रतिशत मामलों का समाधान जिला स्तर पर हो जाएगा। यही वजह है कि हाईकोर्ट में हजारों की संख्या में मामले लंबित रहते हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मई 2024 में एक मामले में माना है कि शादी के दौरान दिए जाने वाले उपहार की सूची तैयार की जानी चाहिए, ताकि बाद में किए जाने वाले झूठे दावों या विवादों को राेका जा सकता है। क्या इसे कानून का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए?
दहेज निरोधक कानून में पहले से ही दहेज लेना और देना अपराध है। ऐसे में इस तरह की कवायद से कोई हल नहीं निकलेगा।
हाल ही में बेंगलुरू में आत्महत्या करने वाले अतुल सुभाष ने सुसाइड नोट में जज पर पूरी तरह से दूसरी पार्टी का पक्ष लेने का आरोप लगाया है। इसके साथ ही जज द्वारा रिश्वत की मांग का भी आरोप लगाया। इस तरह के आरोपों को बतौर जज आप कैसे देखते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। जज हमेशा ही कानून के दायरे में रहकर ही काम करते हैं। वैसे, भी अगर जज का निर्णय आपको उचित नहीं लगता तो उच्च कोर्ट में जाने का प्रावधान है। यह इसीलिए बनाया गया था कि अगर किसी को आपत्ति है तो उसे उच्च कोर्ट में जाना चाहिए। मुझे लगता है कि हो सकता है कि पीड़ित व्यक्ति अगर आत्महत्या करने जैसे कदम उठाने को मजबूर हुआ तो उसके कई अन्य कारण भी हो सकते हैं। महज, भरण-पोषण का निर्णय इसका कारण नहीं हो सकता है।
क्या इस मामले में कानून को लागू कराने के बजाय घटना को प्रताड़ना के तौर पर देखना उचित है?
जज किसी भी मामले में पक्षकार नहीं होते हैं। जज अदालत के समक्ष रखे गए तथ्य व साक्ष्य के आधार पर अपने विवेक से निर्णय करते हैं। अगर, किसी को जज के निर्णय पर आपत्ति है तो वह इसे चुनौती दे सकता है। कई बार हाईकोर्ट का निर्णय भी सुप्रीम कोर्ट रद करता है, लेकिन इस तरह के मामले में शार्ट-कट नहीं होता।
आईपीसी की जगह अब भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) ने ले ली है, इसमें डिजिटल व फोरेंसिक साक्ष्यों को एकत्रित करने से लेकर कानून को लागू करने की प्रक्रिया में सुधार किया गया है। क्या आईपीसी की धारा- 498ए की जगह बीएनएस की धारा-85 के तहत भविष्य में चलने वाले मामलों स्थिति में कुछ बदलाव आने की संभावना दिखाई देती है?
अब नया कानून लागू हुए कुछ समय हुआ है। इसे कुछ समय लगेगा। सरकार को कानून में कमी लगेगी तो उसे ठीक करेगी। नया कानून लाना एक सराहनीय कदम है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस कानून के तहत अब डिजिटल और फोरेंसिक साक्ष्य पर काफी जोर दिया जा रहा है। इसके जरिए तथ्यों व साक्ष्यों का आकलन करके निर्णय लेने से पारदर्शिता बढ़ेगी। अब तक डिजिटल व फोरेंसिक साक्ष्य के अभाव में अदालत को आरोपित को संदेह का लाभ देना पड़ता था, वह कम होगा। इससे अदालत को न सिर्फ निर्णय लेने में आसानी होगी, बल्कि जल्द निर्णय आ सकेगा।
इस घटना के बाद जिस तरह से व्यापक स्तर पर कानून को शिथिल करने की मांग उठ रही है, क्या इससे पारिवारिक विवाद मामलों में एक लंबे अरसे बाद महिलाओं को मिली सुरक्षा या संरक्षण पर कुठाराघात होने की आशंका नहीं है?
कानून को बनाना और लागू करना दो अलग बातें हैं। आज भी यह कानून लचीला है। इसमें स्पष्ट है कि गिरफ्तारी तभी होगी जब सजा सात साल से अधिक होगी। इस कानून में कमी नहीं है और इसमें किसी तरह के बदलाव की आवश्यकता नहीं है। इसे लागू करने की मंशा को ठीक करना होगा। ऐसा करने से असली पीड़ित को न्याय मिलेगा।
क्या मामले की जांच में देरी होना भी बेंगलुरू जैसी घटना को बढ़ावा देता है?
पुलिस बल सीमित है। हर जिले व प्रदेश में पुलिस फोर्स जितनी होनी चाहिए, उतनी नहीं है। जितने मामले उनके पास आते है, बहुत समय से पुलिस रिफार्म की मांग चल रही है। इसके तहत कानून-व्यवस्था और जांच को अलग-अलग करने की बात हो रही है। दोनों अलग-अलग क्षेत्र हैं, लेकिन हम अब भी नहीं कर पाए। कानून-व्यवस्था में लगे व्यक्ति से जांच करने की उम्मीद करना बेमानी है। जांच में भी जब तक विशेषज्ञों की टीम नहीं लगाई जाएगी, तब तक वांछित परिणाम नहीं आएगा। पुलिस रिफार्म बहुत जरूरी है और अदालतों को भी पुलिस के प्रति संवेदनशील होना चाहिए।
दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने या न्यून करने में क्या दहेज प्रतिषेध अधिनियम उपयोगी हो सका है?
दहेज निरोधक कानून के तहत दहेज लेना और देना दोनों ही अपराध है, लेकिन दहेज लेने के मामलों में 100 में से एक ही दर्ज होता है। इसकी एक वजह यह है कि या तो लोगों को इससे जुड़े कानून की जानकारी नहीं है या पुलिस भी जागरूक नहीं है। अधिकतर मामले दहेज कानून में संशोधन के बाद बने 498 ए में दर्ज होते हैं। वैसे तो इस कानून का उद्देश्य ससुराल में प्रताड़ित की जाने वाली महिलाओं को न्याय दिलाना था, लेकिन समय के साथ इसका दुरुपयोग बढ़ा है। आज-,कल तो खुले आम वीडियो बनाकर दहेज देने का बखान किया जाता है, मेरे हिसाब से इस वीडियो के आधार पर ही पुलिस को दहेज का मामला दर्ज करना चाहिए क्योंकि दहेज देना भी अपराध है। समाज की कुरीति को दूर करने की दिशा में इस कानून ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, लेकिन बड़े पैमाने पर यह उपयोगी साबित हुआ है, यह कहना उचित नहीं होगा।
हाल के वर्षों में देश भर में वैवाहिक विवादों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। साथ ही विवाह संस्था के भीतर कलह और तनाव भी बढ़ रहा है। इसकी वजह क्या मानते हैं?
शादी न चलने के कई कारण हैं। इसका पहला कारण यह है कि समाज ने अपनी जिम्मेदारी निभानी बंद कर दी है। पहली स्वजन की मर्जी से शादी होती थी और इसमें दोनों परिवार का एक-एक बुजुर्ग शामिल होता था। जिनकी बात को दोनों पक्ष मानते थे, जो दो पक्षों के बीच विवाद होने पर बीच में पहल कर मामले का समाधान घर की चारदीवारी में ही निकाल लेते थे, लेकिन आधुनिक दौर में हर चीज का समाधान पुलिस या अदालत में तलाशने की कोशिश हो रही है। इसके कारण विवाद सुलझाना संभव नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मैं इसे सामाजिक मामला मानता हूं और समाज अब अपनी जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता, इसलिए मामले पुलिस और अदालत में जाते हैं।
क्या अतुल सुभाष आत्महत्या कांड जैसी प्रताड़ना के मामलों को अलग श्रेणी में लेकर सजा का प्रावधान होना चाहिए ?
इस तरह के मामले में किसी तरह के आयोग या अन्य जांच की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति की मौत के साथ ही उसका मूल मामला समाप्त हो गया है। अब सुसाइड के बाद उससे संबंधित धारा के तहत मामला चलेगा। इसके लिए कोई अन्य प्रावधानो की आवश्यकता नहीं दिखाई देती है।
क्या इस मामले में कानून को लागू कराने के बजाय घटना को प्रताड़ना के तौर पर देखना उचित है।
नहीं, ऐसा करना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा। कानून के दायरे में रहकर ही अदालत निर्णय कर सकती है। अगर कोई व्यक्ति खुद को पीड़ित महसूस करता है तो उसके पास कई कानूनी विकल्प हैं और विभिन्न मंचों पर जाकर वह राहत ले सकता है। घटना को प्रताड़ना के तौर पर देखना बिल्कुल उचित नहीं है।
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