History Of Delhi: काबुली दरवाजा को क्यों कहा जाने लगा खूनी दरवाजा, पढ़िये- क्या कहते हैं एक्सपर्ट
History Of Delhi आरवी स्मिथ अपनी किताब ‘दिल्ली अननोन टेल्स आफ ए सिटी’ में लिखते हैं कि काबुली दरवाजा को ‘खूनी दरवाजा’ नाम इसलिए मिला क्योंकि यहीं पर लेफ्टिनेंट हडसन ने बहादुर शाह जफर के दो बेटों और एक नाती की हत्या की थी।

नई दिल्ली [विष्णु शर्मा]। वर्ष 1981 की बात है, दिल्ली में गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन के मुखिया क्यूबा के फिदेल कास्त्रो ने प्रस्ताव रखा कि अफगानिस्तान से सारे विदेशी सैनिक बाहर निकाले जाएं, लेकिन भारत ने इस प्रस्ताव पर वोट ही नहीं किया। तब हम सोवियत संघ के साथ थे, जिसकी सेनाएं वहां घुसी पड़ी थीं, फिर अमेरिका के साथ थे, जिसकी सेनाएं अफगानिस्तान छोड़ गई हैं। इससे अफगानी शरणार्थी कम ही भारत आ पाए, लेकिन आए जरूर।
सोवियत कब्जे के वक्त 50 लाख अफगानियों में से 30 लाख पाकिस्तान में पहुंचे और बाद में अमेरिका की मोटी रकम की मदद से आतंक के हथियार बने। 2017 की यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में करीब 15000 अफगानी शरणार्थी थे, लेकिन बिना रजिस्ट्रेशन के इनकी संख्या दोगुनी मानी जाती है। दिल्ली में ये कई जत्थों में आए। 2001 में तालिबान का राज खत्म होने पर काफी लौट भी गए।
लाजपत नगर और वहां के आसपास की जगह 1947 से ही की पसंदीदा जगह रही है, तब पंजाबियों ने ठिकाना बनाया था, 1980 में अफगानियों ने। यूं शाहरुख खान के पिता भी अफगानी थे, लेकिन वो काफी पहले पेशावर आ चुके थे और 1948 में दिल्ली आए, न्यू राजेन्द्र नगर में घर लिया। लाजपत नगर में अफगानियों के कई रेस्तरां भी हैं, कई लोगों ने केमिस्ट शाप भी खोलीं। 2010 में जो अफगानी आए, उन्होंने करीब में ही भोगल में, मालवीय नगर के खिड़की विलेज में भी ठिकाना बनाया, ईस्ट कैलाश और आश्रम में भी। जहां पहले से ही अफ्रीकी देशों के लोग बड़ी तादाद में रहते हैं। वैसे भी उनकी मदद के लिए कई शिविर मालवीय नगर और आसपास ही लगे थे। उनके पहले से रहे रहे परिचितों की वजह से भी उन्होंने ये ठिकाना चुना था।
यूएन की एजेंसी और कई एनजीओ इन अफगानियों की कानूनी और स्किल डेवलपमेंट में मदद करते हैं, अंग्रेजी सिखाते हैं, वीजा आदि में मदद करते हैं। एक नया ट्रेंड जो अफगानियों में देखने को मिला है, वो है क्रिश्चियन बनने का, लाजपत नगर में एक अफगानी चर्च भी बन गया है। पिछले साल सीएए के चलते भारतीय एजेंसियों ने सरकार को आगाह भी किया कि अफगानी शरणार्थी नागरिकता पाने के लिए धर्म बदल रहे हैं।
सिंधु सभ्यता और मौर्यकाल से चला आ रहा रिश्ता
अफगानिस्तान का भारतीय रिश्ता तो सिंधु सभ्यता और मौर्यकाल से मिलता है, लेकिन खिलजी से लेकर लोदी तक, मुगलों से लेकर अहमद शाह अब्दाली तक दिल्ली से जुड़ी कई कहानी हैं। दिल्ली ने काफी कुछ ङोला है। अक्सर अफगानिस्तान से रिश्तों वाली इमारतों में अफगानी घूमने आते थे। ऐसा ही किया था अफगान अमीर हबीबुल्लाह ने जब वह 1907 में ब्रिटिश वायसराय से मिलने आया था। वह दिल्ली में अफगान शासकों की इमारतें देखना चाहता था, शेरशाह सूरी द्वारा बनवाई गई किला कुहना मस्जिद के अलावा उसने पुराना किला के सामने शेरशाह गेट या लाल दरवाजा बनवाया और उसी तरह का काबुली दरवाजा बनवाया। जहां से शायद काबुल जाने का काफिला निकलता था।
मौलाना आजाद मेडिकल कालेज के पास ‘काबुली दरवाजा’ को ही आज ‘खूनी दरवाजा’ कहा जाता है। कुछ लोग मानते हैं काबुली दरवाजा यहां नहीं कहीं और था। आरवी स्मिथ अपनी किताब ‘दिल्ली: अननोन टेल्स आफ ए सिटी’ में लिखते हैं कि काबुली दरवाजा को ‘खूनी दरवाजा’ नाम इसलिए मिला क्योंकि यहीं पर लेफ्टिनेंट हडसन ने बहादुर शाह जफर के दो बेटों और एक नाती की हत्या की थी। इस दरवाजे को लेकर कई कहानी प्रचलित हैं कि कैसे दाराशिकोह के सिर को काटकर कई दिन यहां रखा गया। एक ये भी है कि कैसे जहांगीर ने रहीम खानखाना के बेटों की हत्या यहीं करवाई।
मैकमोहन और राजा महेंद्र प्रताप
हबीबुल्लाह ने इस दौरे में पुराना किला के सामने बनी खैर-उल-मनाजिल मस्जिद के वजूखाना, शेरशाह गेट आदि की मरम्मत करवाई। खैर-उल-मनाजिल मस्जिद को बैरम खान की पत्नी माहम अंगा ने बनवाया था। दिलचस्प बात यह है कि अंग्रजों ने हबीबुल्लाह के ब्रिटिश भारत में दौरे का इंचार्ज बलूचिस्तान के गर्वनर हेनरी मैकमोहन को बनाया था और इसी मैकमोहन ने तिब्बत-भारत के बीच सीमा (मैकमोहन रेखा) तय की थी। मैकमोहन ने भारत में ब्रिटिश सरकार का ऐसा आधुनिक ढांचा हबीबुल्लाह के सामने खींचा था कि वो उनका कायल हो गया था, अफगानी इमारतों की मरम्मत की इजाजत देना भी उसी नीति के तहत था। बाद में यही हबीबुल्लाह थे, जिन्होंने हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप की अगुवाई में बनी पहली अनिर्वासित भारतीय सरकार को काबुल में बनाने में मदद की, इन्हीं राजा को 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काबुल की संसद में जाकर याद किया था।
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