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    यहां पर सो रहा है तलवार चलाने वाला कवि, करीब ही है शीला दीक्षित का भी आशियाना

    By JP YadavEdited By:
    Updated: Sat, 19 Jan 2019 03:56 PM (IST)

    रहीम का नामकरण अकबर ने ही किया था। वे मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे। रहीम ने अपने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को लिया है।

    यहां पर सो रहा है तलवार चलाने वाला कवि, करीब ही है शीला दीक्षित का भी आशियाना

    नई दिल्ली (विवेक शुक्ला)। कितने दिल्ली वालों को मालूम है कि ईस्ट निजामुद्दीन में हिंदी के कालजयी कवि और अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर रहीम खान-ए-खाना का भी मकबरा है। कुछ साल पहले तक निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के निकट स्थित यह मकबरा देखरेख के अभाव में जर्जर हो चुका था। इसके गुबंद के पत्थर तक निकल गए थे। अब एक निजी ट्रस्ट इसे इसके मूल स्वरूप में लाने के लिए प्रयासरत है। अफसोस की बात तो यह है कि रहीम जैसी शख्सियत के मकबरे पर अब गिनती के लोग ही पहुंचते हैं। इस बीच किसी के भी जेहन में यह बात नहीं आई कि इसका जीर्णोद्धार कर पर्यटक स्थल बनाया जा सकता है।

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    रहीम (जन्म 17 दिसम्बर, 1556) का पूरा नाम अब्दुल रहीम खानखाना था। उनके पिता बैरम खां मुगल बादशाह अकबर के संरक्षक थे। रहीम जब पैदा हुए तो बैरम खां की आयु 60 वर्ष हो चुकी थी। रहीम का नामकरण अकबर ने ही किया था। वे अकबर के नवरत्नों में से एक थे। रहीम ने अपनी काव्य रचना द्वारा हिंदी साहित्य की जो सेवा की वह अद्भुत है। वे मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे। रहीम ने अपने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को लिया है। उन्होंने खुद को ‘रहिमन’ कहकर भी संबोधित किया है। इनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का सुंदर समावेश मिलता है। एक ओर वे तलवार के धनी हैं, तो दूसरी ओर कलम के। वे साम्राज्य के विस्तारकर्ता हैं। एक ओर अपनी मूल भाषा अरबी, फारसी और तुर्की में रचना करते हैं तो दूसरी ओर अन्य भारतीय भाषाओं को भी आत्मसात किए हुए हैं। एक ओर अपार धन-संपदा के मालिक हैं तो दूसरी ओर उनके समय में उनसे बड़ा कोई दानी नहीं है। एक ओर वे मुस्लिम संस्कृति से बंधे हुए हैं, तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म और संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था भीतर संजोए हुए हैं। एक ओर वे कुशल नीतिकार हैं तो दूसरी कूटनीति भी उनमें मौजूद है।

    बेगम की याद में बनवाया मकबरा

    ऐसा माना जाता है कि इस मकबरे का निर्माण खुद रहीम ने अपनी बेगम की याद में करवाया था, जिनकी मृत्यु 1598 में हो गई थी। बाद में अब्दुल रहीम को 1627 में उनकी मृत्यु के पश्चात इसी मकबरे में दफनाया गया था। इस मकबरे के बलुआ पत्थरों तथा संगमरमर को निकालकर सफदरजंग के मकबरे में लगा दिया गया। बहरहाल, रहीम का मकबरा ईस्ट निजामउद्दीन के बड़े-बड़े बंगलों के बीच में खड़ा है। ये सारा क्षेत्र विदेशी राजनयिकों को बेहद पसंद है। ईस्ट निजामउद्दीन में गुजरे दौर के कई स्मारक खड़े हैं। इनमें से कुछ का तो इतिहास भी किसी को मालूम नहीं है। इधर ही आशियाना है शीला दीक्षित का भी।

    (लेखक साहित्यकार भी हैं)