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    पढ़िये- दिल्ली के एक पूर्व विधायक हरीश खन्ना की कहानी, जो 5वीं क्लास से ही जाते थे डीयू

    By Jp YadavEdited By:
    Updated: Fri, 05 Nov 2021 11:41 AM (IST)

    Harish Khanna हरीश खन्ना ने जाकिर हुसैन दिल्ली कालेज से स्नातक व स्नाकोत्तर की पढ़ाई की। इसके बाद पीएचडी भी दिल्ली विवि से की। आम आदमी पार्टी से विधायक चुने गए लेकिन रिटायर हुए प्रोफेसर के पद से।

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    पढ़िये- अरविंद केजरीवाल के एक पूर्व विधायक हरीश खन्ना की कहानी, जो 5वीं क्लास से ही जाते थे डीयू

    नई दिल्ली [रितु राणा]। 1952 में दिल्ली में जन्मे प्रोफेसर हरीश खन्ना दिल्ली विश्वविद्यालय के श्याम लाल कालेज के पूर्व प्राध्यापक व दिल्ली विधानसभा के पूर्व सदस्य रह चुके हैं। हरीश खन्ना ने जाकिर हुसैन दिल्ली कालेज से स्नातक व स्नाकोत्तर की पढ़ाई की। इसके बाद पीएचडी भी दिल्ली विवि से की। नौ वर्ष दिल्ली विवि शिक्षक संघ की राजनीति में सक्रिय रहने के बाद 2015 में तिमारपुर विधानसभा से चुनाव लड़े और जीते भी, लेकिन आम आदमी पार्टी व कांग्रेस की गठबंधन की सरकार ज्यादा नहीं चल सकी। फिर हरीश खन्ना ने दोबारा चुनाव न लड़कर कालेज ज्वाइन कर लिया और श्याम लाल कालेज से 2017 में सेवानिवृत हुए।

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    विभाजन के समय पिता पाकिस्तान के पेशावर से दिल्ली आए थे। हडसन लेन में शरणार्थियों को बसाया गया था, हम वहीं रहते थे। हडसन लेन स्थित एक छोटे से बैरक में सरकारी स्कूल चलता था, वहीं से मैंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। तब स्कूल में डेस्क नहीं होते थे, हम फटे हुए टाट पर बैठते थे। उन दिनों हाथ में लकड़ी की तख्ती लेकर स्कूल जाते थे। स्लेट पर लिखते थे। रात को तख्ती धोकर उसे मुल्तानी मिट्टी लगाकर सुखाते थे। तब कापी पेन नहीं होते थे, काली स्याही और पन्ने कर लिखते थे। लकड़ी को छीलकर काली स्याही लगाकर कलम बनाते थे। छठी से 11वीं तक की पढ़ाई हकीकत नगर स्थित एक सरकारी स्कूल से की थी तब निजी स्कूल नहीं होते थे।

    जहां मिर्जा गालिब प्रोफेसर रहे वहां पढ़ने का मिला मौका

    1969 में अजमेरी गेट स्थित दिल्ली कालेज में दाखिला लिया था, जिसे अब जाकिर हुसैन कालेज कहते हैं। वो पुरानी दिल्ली की बहुत महत्वपूर्ण इमारत है। वहां भीष्म साहनी, डा. विशंभर नाथ प्रोफेसर थे। ये वो कालेज था जहां मिर्जा गालिब प्रोफेसर हुआ करते थे। ऐसा कहते थे कि पहले दिन मिर्जा गालिब को कोई गेट पर लेने नहीं आया तो वह घर वापस चले गए थे। अब उसी जगह एंग्लो अरेबिक स्कूल चलता है और जाकिर हुसैन दिल्ली कालेज मिंटो रोड के पास चला गया है।

    खैबर पास स्थित पहाड़ को काटकर बनते देखी दिल्ली की सड़कें

    मैंने पांचवीं कक्षा से ही दिल्ली विवि के नार्थ कैंपस में जाना शुरू कर दिया था। वहां बोंटा पार्क में खूब सैर की है। हमारे समय में बोर्ड की परीक्षा पांचवी व आठवीं कक्षा में होती थी, तो नार्थ कैंपस स्थित एंथ्रोपोलॉजी विभाग के सामने घने पेड़ों के नीचे बौठकर पढ़ता था। आज जहां खालसा कालेज हैं उस जगह पहले रिड्स लाइन कालोनी थी जहां शरणार्थियों को बसाया गया था, बाद में उस कालोनी को तोड़कर हकीकत नगर में बसाया। मुखर्जी नगर, शालीमार बाग की जगह सब खेत थे। माडल टाउन में अल्पना सिनेमा के सामने बेर के बाग होते थे। यह सारा इलाका मेरे सामने ही बसा। अब जहां दिल्ली विवि मेट्रो स्टेशन और डीडीए फ्लैट्स हैं, वहां 50 के दशक में सारा जंगल था, कीकर के पेड़ थे। तीतर, बटेर, जंगली खरगोश, कठफोड़वा दिखाई देते थे, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं बचा, देखते ही देखते दिल्ली कंक्रीट का जंगल बन गई। तब माल रोड, खैबर पास, तिमारपुर की जगह पत्थर के पहाड़ थे। उन पहाड़ों को पार करके हम मजनू का टीला जाते थे। उसी पहाड़ को काटकर दिल्ली की सड़कों का निर्माण हुआ। मेरे सामने बड़े-बड़े ट्रक आते थे, जिनमें पत्थर भरकर ले जाए जाते थे।

    60 वें दशक के बाद मजनू का टीला में बसे तिब्बती

    आज जो मजनू का टीला तिब्बतियों की वजह से प्रसिद्ध है, वहां मेरे बचपन के दिनों में एक भी तिब्बती नहीं दिखाई देता था। 60 के दशक के बाद वहां तिब्बती आकर बसने शुरू हुए। अरुणा कालोनी शायद दिल्ली की पहली पुनर्विस्थापित कालोनी है। मुझे याद है उसका उद्घाटन करने स्वयं जवाहर लाल नेहरू आए थे।

    चांदनी चौक और कनाट प्लेस होता था घूमने का ठिकाना

    बचपन में पिताजी के साथ खाने और खरीदारी के लिए चांदनी चौक और फिल्म देखने कनाट प्लेस जाता था। तब ऐसा कहते थे मध्यम वर्गीय परिवार के लिए चांदनी चौक और अपर क्लास वालों के लिए कनाट प्लेस घूमने की जगह होती थी। चांदनी चौक में विज पूरी वाला था, वहां के छोले भटूरे और गुलाब जामुन मुझे बहुत पसंद थे। टाउन हाल के सामने बंटे वाली बोतल भी बहुत पी है, वो आज भी मिलती है। तब चांदनी चौक में मेकडानल्ड की जगह कुमार सिनेमा हाल, शीशगंज गुरुद्वारे के सामने मैजेस्टीक सिनेमा हाल, मोती सिनेमा हाल, जुबली सिनेमा हाल और फतेहपुरी पर नावल्टी सिनेमा हाल बहुत प्रसिद्ध हुआ करते थे। मैंने कनाट प्लेस में रीगल और ओडिएंस सिनेमाघर में बहुत फिल्में देखी हैं। वहां राज कपूर की बहुत फिल्में देखी और वि. शांताराम की स्त्री फिल्म भी देखी थी। मुझे याद है दरियागंज में मोती महल दिल्ली का सबसे पुराना व प्रसिद्ध नान वेज का रेस्तरां था। वहां हमने खूब नान वेज खाया है। पूरी दुनिया में बटर चिकन का कानसेप्ट भी इसी रेस्तरां से प्रसिद्ध हुआ है।

    दिल्ली विवि की राजनीति से विधानसभा चुनाव का सफर रहा रोचक

    कालेज के दिनों में अरुण जेटली, विजय गोयल व श्रीराम खन्ना के साथ बैठकर ला फैकल्टी के काफी हाउस में खूब काफी पी। 1987 में पहली बार डूटा एग्जिक्यूटिव चुनाव जीता था। मेरे साथ टीम में 15 अन्य लोग भी थे जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा, दिल्ली की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया भी शामिल थीं। दिल्ली विवि अकादमिक काउंसिल और डूटा एग्जीक्यूटिव चुनाव में नौ बार जीतने का मेरा एक रेकार्ड है। इतनी बार लगातार चुनाव कोई नहीं जीता। मैं एक छोटा से समाजवादी ग्रुप से जुड़ा था, जो एक स्वतंत्र ग्रुप था और किसबी भी पार्टी से नहीं जुड़ा था। हां मेरी समाजवादी विचारों में आस्था जरूर रही है। मैं डूटा का उपाध्यक्ष और सचिव भी रहा। उसी दौरान 2015 में पहली बार जनप्रतिनिधि के रूप में एक सक्रिय राजनीति में आया था। जो बिल्कुल अलग अनुभव था। लेकिन वह सरकार ज्यादा नहीं चली, दिक्कत ये थी कि आप पहली बार सत्ता में आई थी दिल्ली की नई पार्टी थी। तब सरकार चलाना कठिन था और लोगों की अपेक्षाएं बढ़ गई थी। राजनीति बिना संसाधनों के नहीं हो सकती है और मैं इस तरह की ढर्रे वाली राजनीति नहीं करना चाहता था इसलिए दोबारा चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था और वापस कालेज में पढ़ाने चला गया था।

    ऐसी भयानक महामारी तो कभी नहीं देखी

    69 वर्ष के जीवन में कोरोना महामारी जैसे भयावह हालात कभी नहीं देखे। हमारे बड़े बताते हैं कि 1912 के आसपास प्लेग बीमारी ने एक महामारी का रूप ले लिया था, उससे बहुत से लोगों की मौतें हुई। करीब 25 वर्ष पूर्व प्लेग महामारी दोबारा आई थी। जिसमें कुछ लोग मरे भी थे लेकिन वह ज्यादा नहीं फैली। इसके अलावा बर्ड फ्लू जैसी बीमारी बीच बीच में आती रही है, जिससे लोग बहुत डर जाते हैं। अंडे व मुर्गा खाना लोग छोड़ देते हैं, लेकिन कोरोना महामारी ने तो लोगों के जहन में खौफ पैदा कर दिया है। न जाने कब इस महामारी का मंजर थमेगा और फिर से पूरा विश्व सकारात्मकता के साथ उठेगा।

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