यादों में साहित्यकारः छोटे घर से बड़ी दुनिया में चले गए कुंवर नारायण
मूलरूप से फैजाबाद के रहने वाले कुंवर पिछले 51 साल से साहित्य से जुड़े थे। उन्होंने दिल्ली के सीआर पार्क स्थित अपने घर में बुधवार को अंतिम सांसे लीं।
नई दिल्ली (मनीष मिश्रा)। हिंदी साहित्य में नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुंवर नारायण अज्ञेय के तीसरा सप्तक (1959) के प्रमुख कवियों में शुमार हैं। कुंवर की कविता का विन्यास जिंदगी के उस फलक की मानिंद है, जो बचपन की मासूमियत से शुरू होकर जवानी के जोश और फिर गृहस्थ जीवन के खुरदरे अहसास को जीते हुए परिपक्व हो जाता है।
ऐतिहासिक और मिथकीय प्रसंगों की यवनिका पर उनका काव्य संसार कुछ इस अंदाज में उतारता है, जिसमें पात्र यथार्थ से अचानक मुठभेड़ करते नजर आने लगते हैं।
हालांकि तब इतिहास या मिथक पात्रों को कोई संबल नहीं देता, बल्कि उसे परिस्थितियों से लडऩे-भिडऩे को और उद्धत करता है। 1965 में रचित.'आत्मजयी' ने कुंवर को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया।
उनकी आरंभिक रचनाएं ईश्वरीय सत्ता, आत्मा, मृत्यु जैसे गूढ़ रहस्यों और मीमांसाओं की गुत्थियां सुलझाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं। अपने प्रबंध काव्य 'आत्मजयी' में वह नचिकेता का मृत्यु से सीधा साक्षात्कार कराते हैं।
पिता वाजश्रवा की आज्ञा के अनुपालन में यमराज के समक्ष नचिकेता की जिद, दरअसल मानवीय जिजीविषा और उसकी जिज्ञासा को बताता है। यह जिद ही मनुष्य में समष्टि और सामंजस्य का भाव भऱता है। शायद इसी भाव से आपूरित नचिकेता यमराज से अपने पिता के क्रोध के शमन का वरदान मांगता है।
यहां कवि ने दो पीढिय़ों के बीच समन्वय के बोध की झलक पेश की है। इसी प्रकार कविता संग्रह 'परिवेश हम तुम' मानवीय अंतरसंबंधों के विरल और सूक्ष्म विश्लेषण का शानदार रूपक है।
कुंवर साहित्य को व्यवसाय बनाने के धुर विरोधी थे। उनका पैतृक व्यवसाय कारों का था। कभी उन्होंने कहा था कि साहित्य का धंधा न करना पड़े, इसलिए पैतृक व्यवसाय भी चलाना मुनासिब समझा।
कुंवर हिंदी के उन चुनिंदा कवियों की पांत में खड़े हैं, जिनका रचना संसार उत्तरोत्तर विकासशील प्रवृतियों से लैस रहा। जेपी आंदोलन के बाद हुए सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में उथल-पुथल का विंब उनकी रचनाओं में साफ दिखाई देता है।
रुढिय़ों, बंदिशों, मान्यताओं और परंपराओं को लगातार तोड़ते हुए वह लगातार छोटे घर से बड़ी दुनिया में प्रवेश करते जाते हैं। इन पंक्तियों में सामाजिक आकुलता और नई व्यवस्था की व्यग्रता को देखें-
अब मैं एक छोटे से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं
कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था
कम दीवारों से
बड़ा फर्क पड़ता है
दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।
फिल्म की तरह टुकड़ों में लिखी कविता बाद के दौर में कुंवर की फिल्मों में भी गहरी रुचि रही। वह कविता और फिल्म को संप्रेषण का सशक्त माध्यम मानते थे। पोलैंड के क्रिस्ताफ किस्लोवस्की और आंद्रेई वाज्दा, स्वीडन के इंगमार बर्गमैन, महान रूसी निर्देशक तारकोवस्की उनके प्रिय फिल्मकार थे। तारकोवस्की को वह फिल्मों का कवि कहते थे।
यहां पर बता दें कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि कुंवर नारायण का बुधवार को निधन हो गया। वह 90 वर्ष के थे। मूलरूप से फैजाबाद के रहने वाले कुंवर पिछले 51 साल से साहित्य से जुड़े थे। उन्होंने दिल्ली के सीआर पार्क स्थित अपने घर में बुधवार को अंतिम सांसे लीं। वह सीआर पार्क में अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहते थे।
प्रमुख रचनाएं: चक्रव्यूह, आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने, आकारों के आसपास (कहानी संग्रह-1971), परिवेश हम-तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, आज और आज से पहले (समीक्षा)।
सम्मान और पुरस्कार : ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, प्रेमचंद पुरस्कार, शलाका सम्मान, मेडल ऑफ वारसा यूनिवर्सिटी, पोलैंड और रोम के अंतरराष्ट्रीय प्रीमियो फेरेनिया सम्मान, पद्मभूषण।