पुरुषों के मुकाबले महिलाएं 5 साल पहले होती हैं फेफड़े के कैंसर का शिकार; AIIMS और ICMR के रिसर्च में खुलासा
सिगरेट और बीड़ी पीने से पुरुषों को फेफड़े का कैंसर होने का खतरा ज़्यादा होता है पर महिलाओं को यह बीमारी कम उम्र में भी हो सकती है। एम्स और आईसीएमआर के एक अध्ययन में पता चला है कि पैसिव स्मोकिंग और रसोई के धुएं से महिलाओं में फेफड़े के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इलाज में देरी भी एक बड़ी समस्या है।

रणविजय सिंह, नई दिल्ली। सिगरेट व बीड़ी के धूम्रपान के कारण पुरुष भले ही फेफड़े के कैंसर से अधिक पीड़ित होते हैं लेकिन पुरुषों के मुकाबले महिलाएं पांच वर्ष कम उम्र में इस बीमारी से पीड़ित होती हैं। एम्स के कैंसर सेंटर और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के राष्ट्रीय रोग सूचना विज्ञान और अनुसंधान केंद्र (एनसीडीआइआर) द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है, जो हाल ही में लंग इंडिया जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
पैसिव स्मोकिंग, रसोई का धुआं, ग्रामीण और दूर दराज के क्षेत्रों में खाना बनाने में उपले, लकड़ी, कोयले जैसे बायोमास ईंधन के धुएं का दुष्प्रभाव को महिलाओं में फेफड़े के कैंसर का बड़ा कारण बताया गया है।
एम्स कैंसर सेंटर के डाक्टरों ने वर्ष 2012-19 के बीच देश भर के 96 अस्पतालों में फेफड़े के कैंसर से पीड़ित होकर इलाज के लिए पहुंचे 45,228 मरीजों पर यह अध्ययन किया है, जिसमें 34,395 पुरुष व 10,833 महिला मरीज शामिल थीं।
पुरुषों में फेफड़े के कैंसर का सबसे बड़ा कारण धुम्रपान
अध्ययन में पाया गया कि तीन चौथाई पुरुष मरीज 50-74 वर्ष की उम्र में व 69.4 प्रतिशत महिला मरीज 45-69 वर्ष की उम्र में फेफड़े के कैंसर से पीड़ित हुईं। जबकि पुरुषों के मुकाबले बहुत कम महिलाएं धूमपान करती हैं। राष्ट्रीय गैर संचारी रोग निगरानी सर्वे के अनुसार देश में 23 प्रतिशत पुरुष धूमपान करते हैं। बीड़ी के सेवन से कैंसर होने का जोखिम 2.64 गुना और सिगरेट से 2.23 गुना बढ़ जाता है। इससे धूमपान पुरुषों में फेफड़े के कैंसर का सबसे बड़ा कारण है। औसतन 21 वर्ष की उम्र में वे धूमपान शुरू कर देते हैं। यह आदत वर्षों बाद कई लोगों में यह कैंसर कारण बनता है।
देश में सिर्फ 1.3 प्रतिशत महिलाएं धूपमान करती हैं लेकिन पति या परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा धूपमान करने के कारण 37.5 प्रतिशत महिलाएं पैसिव स्मोकिंग की शिकार हैं। पैसिव स्मोकिंग का अर्थ धूमपान करने वालों के नजदीक खड़े लोगों के फेफड़े में सांस के जरिये धुआं पहुंचना।
इस अध्ययन में कहा गया है कि कई शोधों में रसोई के धुएं से महिलाओं के कैंसर होने के जोखिम की बात सामने आ चुकी है। वहीं बायोमास ईंधन के दहन से 1,3-ब्यूटाडीन, साइक्लोपेंटेन, पायरीन व एन्थ्रासीन जैसे कैंसर कारक रसायन निकलते हैं। बहरहाल, उज्ज्वला योजना के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में खाना बनाने में बायोमास ईंधन का इस्तेमाल बहुत कम हो गया है।
बहुत कम मरीजों की हो पाती है सर्जरी
अध्ययन में पाया गया कि इलाज में देरी एक बड़ी समस्या है। दूसरे अस्पतालों में जांच कराने वाले एक तिहाई मरीज जांच के सात से 30 दिन बाद कैंसर अस्पतालों में पहुंचे। 50.7 प्रतिशत मरीजों की बीमारी शरीर एडवांस स्टेज में पहुंच चुकी थी। शुरुआती स्टेज के भी बहुत कम मरीजों की सर्जरी हो पाती है। शुरुआती स्टेज के 5.9 प्रतिशत पुरुष और 8.4 प्रतिशत महिला मरीजों की सिर्फ सर्जरी हुई।
वहीं 4.2 प्रतिशत पुरुष व 4.7 प्रतिशत महिला मरीजों की सर्जरी, कीमो व रेडियोथेरेपी तीनों हुई थी। जिन मरीजों में ट्यूमर फेफड़े के आसपास फैला हुआ था उनमें से सिर्फ 2.22 प्रतिशत पुरुष व 2.52 प्रतिशत महिला मरीजों की ही सर्जरी, कीमा व रेडियोथेरेपी तीनों हुई।
ज्यादातर मरीजों का इलाज कीमोथेरेपी व रेडियोथेरेपी से ही होता है। शुरुआती स्टेज व जिन मरीजों में ट्यूमर फेफड़े के आसपास फैला था उनमें से क्रमश: 19.6 प्रतिशत व 36.2 प्रतिशत मरीजों का सिर्फ दर्द कम करने के लिए पैलिएटिव इलाज हुआ। एडवांस स्टेज के 77.7 प्रतिशत मरीजों का पैलिएटिव केयर ही हो पाता है।

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