Delhi News: इतिहास के पन्नों में राजधानी दिल्ली से जुड़ी मिलती है कोहिनूर के हीरे की गाथा
Delhi News हीरे के सफर के बारे में कहा जाता है कि कई हाथों से होता हुआ यह गोरी वंश के शासकों के पास पहुंच गया उनके पास से यह तुगलक सैयद और लोधी शासकों से होता हुआ तैमूर वंश (मुगलों) तक पहुंच गया।
नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। आंक्राताओं ने हमसे कोहिनूर छीना और भी बहुत सी गौरवान्वित करने वाली सांस्कृतिक पहचान छीन लीं, आखिर हम इन्हें कब वापस लाएंगे? एक छात्र का अपने अभूतपूर्व इतिहास के प्रति जिज्ञासा भरा प्रश्न दर्शाता है कि आज की पीढ़ी अपने अतीत पर चिंतन करती है, और लगाव भी रखती है। इस सप्ताह की शुरुआत में दिल्ली वि. में पीएम नरेन्द्र मोदी की किताब पर चर्चा थी, आयोजन में विदेश मंत्री एस जयशंकर बतौर अतिथि आए थे।
उन्हीं से सवाल एक छात्र ने किया था। और विदेश मंत्री का जवाब भी बहुत आत्मविश्वास जगाने वाला था कि जो कुछ गलत तरीके से लिया गया वो सब वापस लाया जाएगा...। कोहिनूर, भारत के इतिहास का 'कोहिनूर ही है। इसे भी वापस लाने का प्रयास किया जाएगा। इतिहास के पन्नों में जब दिल्ली का अध्याय पलटते हैं तो इस हीरे की गाथा राजधानी से जुड़ी मिलती है। तो आइए, सबरंग के इस अंक में कोहिनूर की कहानी पढ़ते हैं :
कोहिनूर, देखा नहीं है, लेकिन इतिहास बताता है कि मुर्गी के छोटे अंडे के आकार बराबर रहा होगा ये हीरा। अनगिनत कहानियां इतिहास के पन्ने इस हीरे की सुनाते हैं। जिसमें दिल्ली के खानदानी जौहरी परिवारों ने इसकी सबसे पहले कहानी सुनाई। नादिर शाह ने तो कत्लेआम तक कराया जिसका गवाह लालकिला की दीवारें बनीं। उस दौर में हर शासक ने कोहिनूर को पाने की कोशिश की थी।
भारत में ब्रितानिया हुकूमत ने अपने पैर जमाने शुरू किए तो कोहिनूर पर निगाह अटकी रहीं। इसे हथियाकर ब्रिटेन भेज दिया गया। लेकिन अब भारत सरकार कोहिनूर को वापस लाने की कोशिश करेगी। दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि जो भी गलत तरीके से हमसे लिया गया, उसे वापस लाने का प्रयास किया जाएगा। प्राचीन इतिहास के घने कोहरे से निकले इस शानदार हीरे के बारे में कहा जाता है कि इसे दक्षिण भारत स्थित किसी मंदिर में मूर्ति की आंख में से तुर्कों ने लूटा था।
ढाई दिन भोजन के बराबर : वर्ष 1534 में लिस्बन विश्वविद्यालय में मेडिसिन के प्रोफेसर दा ओर्तो ने पद छोड़ दिया और गोवा में बसने का निर्णय लिया। ओर्तो लिखते हैं कि विजयनगर भारत में सबसे बड़े हीरों का स्थान रहा है। ओर्तो ने विजयनगर में बड़ा हीरा देखा। बकौल ओर्तो मैंने भी सबसे बड़ा हीरा 140 कैरेट और दूसरा 120 कैरेट का देखा है, पर मैंने सुना है कि इस राज्य के एक स्थानीय निवासी के पास इससे काफी बड़ा 250 कैरेट का हीरा था।
मैंने यह भी सुना है कि विजयनगर के एक नागरिक ने मुर्गी के छोटे अंडे के बराबर हीरा देखा। कहते हैं कि यह कोहिनूर का सबसे पहला उल्लेख था। हालांकि यह नहीं पता कि कोहिनूर विजयनगर कैसे पहुंचा। हीरे के सफर के बारे में कहा जाता है कि कई हाथों से होता हुआ यह गोरी वंश के शासकों के पास पहुंच गया, उनके पास से यह तुगलक, सैयद और लोधी शासकों से होता हुआ तैमूर वंश (मुगलों) तक पहुंच गया और वह मुगलों के पास मोहम्मद शाह के शासनकाल तक रहा जो इसे अपनी पगड़ी में पहनता था।
बाद में नादिर शाह के हथिया लिया। नादिर शाह की मौत के बाद यह उसके प्रमुख अफगान अंगरक्षक अहमद शाह अब्दाली के पास पहुंच गया। करीब सौ साल तक अफगान शासकों के हाथ रहने के बाद वर्ष 1813 में महाराजा रणजीत ङ्क्षसह ने इसे युद्ध हार कर भाग रहे अफगान शाह से लिया था। 'बाबरनामाÓ के मुताबिक इब्राहिम लोधी को युद्ध में हराने के बाद हुमायूं ने ग्वालियर के राजा बिक्रमजीत व उनके परिवार को बंदी बना लिया, जो उस समय आगरा में ही मौजूद थे। उन्होंने हुमायूं को ढेर सारा खजाना और कीमती जवाहरात दिए। यह हीरा उन्हीं मे से एक था। ऐसा माना जाता है कि इस हीरे को अलाउद्दीन खिलजी लेकर आया था। उस समय इस हीरे की कीमत पूरी दुनिया के ढाई दिन के भोजन के बराबर लगाई गई थी।
दिल्ली में कत्लेआम : फारस का शाह नादिर शाह भारत पर केवल इसलिए हमला करना चाहता था ताकि वो अपना खजाना रत्नों, जवाहरातों से भर सके। एचएम इलियट अपनी किताब 'द हिस्ट्री आफ इंडिया एज टोल्ड बाई इट््स ओन हिस्टोरियंस में लिखते हैं कि नादिर शाह ने करनाल के पास डेढ़ लाख की फौज खड़ी की। उसने दस लाख की सेना वाले मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले को परास्त किया। मोहम्मद शाह के नजदीकियों ने उससे विश्वासघात किया। लड़ाई के दौरान मुगल सेना का नेतृत्व कर रहे सरदार सआदत हसन खान को नादिर शाह के सैनिकों ने पकड़ लिया।
नादिर शाह के सामने पेश किया गया तो सआदत ने कहा कि मुगल बादशाह ने उसके साथ धोखा किया। उसे युद्ध के मैदान में भेज उसकी जगह निजाम उल मुल्क को बैठा दिया। वो इसका बदला लेना चाहता था, इसलिए उसने मुगल खजाने की पूरी जानकारी नादिर शाह को दी। नादिर दिल्ली दाखिल हुआ तो सैनिकों की वजह से अनाज के दाम बढ़ गए। नादिर की हत्या की अफवाह फैली तो लोगों ने उसके सैनिकों पर हमला बोल दिया। जिसके बाद नादिर के कहने पर सैनिकों ने 40 हजार से अधिक दिल्लीवासियों का कत्ल किया। सैनिकों ने दिल्ली के हर घर से खजाना लूटा।
पगड़ी बदल नादिर ने हथिया लिया कोहिनूर :
विलियम डेलङ्क्षरपल अपनी किताब 'कोहिनूर में लिखते हैं कि मोहम्मद शाह रंगीले के दरबार की एक नर्तकी नूर बाई ने नादिर शाह से मुखबिरी की थी। उसी ने यह बताया था कि मोहम्मद शाह अपनी पगड़ी में कोहिनूर छिपाकर रखता है। नादिरशाह ने समझौते के बहाने मोहम्मद शाह को बुलाया और पगड़ी बदलने पर जोर दिया। इस तरह कोहिनूर हीरे वाली पगड़ी नादिर शाह ने हथिया ली।
जब उसने पहली बार कोहिनूर को देखा तो देखता ही रह गया। फारसी इतिहासकार मोहम्मद काजिम मारवी अपनी किताब 'आलम आरा-ए-नादरी में लिखते हैं कि 57 दिनों तक दिल्ली में रहने के बाद 16 मई, 1739 को नादिर शाह अपने देश के लिए निकला। अपने साथ वो मुगलों की सारी दौलत लेकर गया। इसमें तख्त ए ताउस भी शामिल था, जिसमें कोहिनूर और तैमूर की रूबी जड़ी हुई थी।
खजानों को 700 हाथियों, 400 ऊंटों और 17 हजार घोड़ों पर लाद कर ईरान रवाना किया गया था। नादिर शाह कोहिनूर को लंबे समय तक पास नहीं रख सका। नादिर शाह की मौत के बाद सैनिकों ने खजाना लूटना शुरू कर दिया। नादिर शाह के शिविर में ङ्क्षहसा हुई तो खजाना लूट लिया गया। अहमद शाह ने नादिर शाह के खजाने पर कब्जा जमा लिया। जब उसने पानीपत के युद्ध में माराठा सैनिकों को हराया तो बाजू में कोहिनूर बांधकर घूमा। बाद में अहमद शाह अब्दाली का अंग सडऩे लगा।
रणजीत सिंह ने किया समझौता
बीमारी से मौत के बाद अहमद शाह का बेटा तैमूर शाह गद्दी पर बैठा। तैमूर बहुत शकी किस्म का था और शक की बिना पर बेकसूरों को भी मारता था। 1793 में पेशावर से काबुल जाते समय इसकी मौत हो गई। इसके 36 बच्चे थे, जिसमें 24 लड़के थे। राजगद्दी के लिए तैमूर के बच्चों ने आपस में ही कत्लेआम मचाया। आखिरकार पिता की गद्दी शाह जमां को मिली, जिसने दुर्रानी साम्राज्य को दोबारा खड़ा करने की कोशिश की। उसने भारत पर आक्रमण का ऐलान किया। इस समय तक भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी जड़े जमा चुकी थी। कंपनी के गर्वनर जनरल लार्ड वेलेस्ली बहुत शातिर था।
उसने काजार वंश के फारसी शाह को शाह जमां के साम्राज्य के असंरक्षित इलाकों पर आक्रमण करने के उकसाया। शाह जमां का सामना रणजीत ङ्क्षसह से भी हुआ था। रणजीत ङ्क्षसह ने शाह जमां की सेनाओं पर हमले किए लेकिन जब उन्होने देखा कि शाह जमां भाग रहा है तो हमले बंद कर दिए। शाह जमां के उसके ही भाई शुजा ने कैद कर लिया। कहते हैं गद्दी पर बैठते ही शुजा ने सबसे पहले कोहिनूर की खोज शुरू की। उसे कोहिनूर एक मुस्लिम के घर से मिला, जो उसका पेपरवेट के तौर पर इस्तेमाल कर रहा था।
कुछ समय बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का एक दल बादशाह शुजा के दरबार आया तो कोहिनूर देख भौचक रह गया। अगले कुछ समय में शुजा एक लड़ाई हार गया और दर-बदर भटकने को मजबूर हो गया। हालांकि इस समय भी उसके पास दुनिया का सबसे बेशकीमती हीरा कोहिनूर था। रणजीत ङ्क्षसह उन राजाओं में शामिल थे जो उस महान हीरे को हासिल करना चाहते थे। बाद में वो इसमें सफल भी हो गए।
सिखों को हरा अंग्रेजों ने जीता कोहिनूर : 29 मार्च 1849 को पंजाब की गद्दी एक दस वर्षीय राजा, महाराजा दलीप ङ्क्षसह ने संभाली। एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बचेखुचे दरबार और दरबारियों के बीच महाराजा ने औपचारिक समर्पण संधि पर दस्तखत कर दिए। चंद मिनटों में किले की प्राचीर पर से सिख खालसा का झंडा उतर चुका था और उसकी जगह अंग्रेजों के यूनियन जैक ने ले ली थी। दलीप ङ्क्षसह पर यह दबाव डाला गया कि वह रानी विक्टोरिया को एक ऐसी चीज सौंप दें जो सिर्फ पंजाब या भारत नहीं पूरे उपमहाद्वीप में सबसे कीमती थी। यानी सबसे मशहूर हीरा कोहिनूर। समर्पण संधि का तीसरा अनुच्छेद कहता है कि 'कोहिनूर नाम का रत्न, जिसे महाराजा रणजीत ङ्क्षसह ने शाह शुजा-उल-मुल्क से हासिल किया था, उसे महाराजा लाहौर इंग्लैंड की साम्राज्ञी को समर्पित करेंगे।
जब करारनामे पर हस्ताक्षर होने की खबर गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी को मिली तो विजयी भाव से उसने लिखा, 'मैंने जैसा सोचा था वैसा ही कर भी लिया। डलहौजी ने दिल्ली के अपने कनिष्ठ सहायक मजिस्ट्रेट थियो मेटकाफ को हीरे के बारे में शोध करने के लिए कहा। थियो ने काफी रिसर्च के बाद रिपोर्ट लिखी। उसने लिखा कि 'सबसे पहले दिल्ली में सबसे बुजुर्ग जौहरियों के परिवार की खानदानी कहानियों के मुताबिक यह हीरा कोहिनूर खदान से निकला था जो मासुल्लिपटनम से उत्तर पूर्व चार दिन की यात्रा के बाद आती है।
गोदावरी के तट पर स्थित इस खदान से हीरा, कृष्ण के जीवन काल में निकाला गया था जो आज से करीब पांच हजार साल पहले इस धरती पर रहे थे...थियो की यह रिपोर्ट आज भी भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद है। थियो द्वारा रिपोर्ट पेश करने के कुछ समय बाद ही कोहिनूर को रानी विक्टोरिया के पास इंग्लैंड भेज दिया गया, जिन्होंने उसे 1851 की ग्रेट प्रदर्शनी में प्रदर्शित कर दिया। प्रदर्शनी की वजह से कोहिनूर दुनिया का सबसे प्रसिद्ध हीरा बन गया।
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