Mirza Ghalib : दिल्ली की इस गली में आकर कीजिए मिर्जा गालिब से मुलाकात
कुछ मेरी तरह गालिब की तलाश में लगते हैं। उनकी तलाश एक कतार में लगे जूती और चश्मों पर नहीं ठहर रही है। वह भी दिल्ली के दूसरे किनारे से आए हुए हैं।
नई दिल्ली, जेएनएन। 'अपनी गली में मुझ को न कर दफ्न बाद-ए-कत्ल, मेरे पते से खल्क को क्यूं तेरा घर मिले।' बल्लीमारान गली में कदम रखते वक्त मन में तमाम ख्यालात थे। पता नहीं उनकी हवेली के बहाने उस अजीम शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात हो पाएगी की नहीं या पता नहीं वह किनारा जिससे उनका सिरा जुड़ा था वह कैसा होगा, जैसा कि, कौन जाएं जौक दिल्ली की गलिया छोड़कर..। कुछ तो बात होगी उस गली में भी, जिसमें उनका आशिया रहा होगा। तभी तो गालिब यहीं के होकर रह गए। बल्लीमारान की सड़क के दोनों किनारे रंग-बिरंगे और चमचमाते सैंडिलों और जूतियों से चमक रहे हैं। दुकानों की लंबी कतारें, जिसमें बुर्कानशी महिलाएं उसका नाप लेने में मशगूल हैं। आगे रंग-बिरंगे चश्मों की दुकानों की कतारें शुरू होती हैं। उसमें भी ग्राहक हैं, जो चश्में देख रहे हैं।
सड़क पर रिक्शा, ठेला और सड़क पर सामान बेचते लोग भी कम नहीं है। अर्ज-ए-नियाज-ए इश्क के काबिल न रहा, जिस दिल पे नाज था मुझे वो दिल ना रहा..। अभी थोड़ा शेर-शायरी का सुरूर ही था कि पीछे से रिक्शे से किनारे होने की आवाज आई। सच है कि पुरानी दिल्ली में संभल कर न चला जाएं तो टकराने का भय बना रहता है। हमको मालूम है जन्नत की हकीकत। दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है। अब पुरानी दिल्ली बहुत बदल चुकी है। यहां के बाशिदों का अब भीड़भाड़ से यहां मन नहीं लगता है। वो गलिया छोड़ने का दर्द तो है, लेकिन उनका इसके व्यावसायीकरण ने सास लेना भी मुश्किल किया है। कुछ मेरी तरह गालिब की तलाश में लगते हैं। उनकी तलाश एक कतार में लगे जूती और चश्मों पर नहीं ठहर रही है। वह भी दिल्ली के दूसरे किनारे से आए हुए हैं। वैसे, पूछता कौन है, जब जिंदगी रफ्तार से भागे जा रही हो तो फिर कहां गम-ए-सुकून का दौर। चलिए अच्छा है, कुछ हैं जिनके दिलों में नज्म-ए-चराग जल रहा है।
वैसे, सही है किताबी तस्वीरों से हकीकत जुदा होती है। सोचा था गली भी गालिब की गजलों से महक रही होगी। इन्हीं सब उधेड़बुन में था कि एक तरफ मुगलई व्यंजनों की खुशबू और सड़क के दूसरे किनारे पान की दुकान पर ठहाकों का दौर, तंद्रा तोड़ने का काम करती है। पान घुले मुंह से बातें भी थोड़ी नजाकत से होती है। अब तक गालिब का होने का अहसास नहीं मिला था।
उदास मन से एक गुजरते युवा से पूछा, वह अदब से बोला हां, बस चंद कदम और। दाईं गली में बाईं ओर बड़ा सा गेट गालिब की हवेली का खुलता है। बस, जैसे जान लौट आती है। कदमों को जैसे मंजिल मिलती है। दोनों किनारे पुराने बनावट के मकान। लकड़ी के छज्जे। स्कूली बच्चे निकल रहे हैं। स्कूल की छुट्टी हो गई है। बस, जैसे घर पहुंचने की जल्दी। अचानक रोड उनकी खिलखिलाहट से भर जाती है। मेरा ठिकाना नजदीक आ रहा था। धड़कनें तेज थी। जैसे इस गली की रफ्तार। दाएं एक पतली गली, लग रहा है आगे बंद हो जाती है।
एक बड़ा सा अहाता। उसके बाहर मिर्जा गालिब की हवेली लिखा बोर्ड देखकर दिल को सुकून मिलता है, जैसे तलाश पूरी हुई। गली कासिम जान। अंदर मूर्ति में मुस्कुराते गालिब और उनके होने का अहसास कराते अशरार। मेरे साथ और भी लोग। एक युगल, कभी नज्मों और उनके सामानों के साथ कभी खुद की तस्वीर लेने में मशगूल। विदेशी पर्यटकों का दल भी है, जिनका गाइड उन्हें गालिब के मायने समझा रहा है। हुक्का हाथ में गालिब। गालिब तो हैं उन पन्नों में, जो यथावत हैं। वह बर्तन, वह कपड़े, जिसका इस्तेमाल करते थे। हर कोने में गालिब के होने का अहसास है। उग रहा दर-ओ-दीवार पे सब्जा गालिब, हम बयाबा में हैं और घर में बहार आई है।
यहां पर बता दें कि मिर्ज़ा ग़ालिब ये सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि समूचे हिंदुस्तान के साथ दक्षिण एशिया की भी विरासत है, जो 200 साल बाद भी वही रवानी लिए हुए है। ये शायर ग़ालिब की कलम का ही जादू है कि आज भी लोग उनकी शायरी के कायल हैं और दो सदी बाद भी उनकी रुहानी शख्सियत का जादू बरकरार है।
ग़ालिब के समकालीन और भी कई शायर थे, जिन्होंने उम्दा नज़्म-ग़ज़ल लिखी, लेकिन ग़ालिब की ऊंचाई को कोई दूसरा शायर नहीं पा सका। इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आम-ओ-खास की ज़बान पर आ गया।
यह अलग बात है कि 'दीवान-ए-ग़ालिब' पढ़ने और समझने के लिए उर्दू की समझ होनी जरूरी है। वरना, आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की। बाद के दिनों में ग़ालिब ने वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान में कहे गए।
मिर्ज़ा ग़ालिब को उर्दू, फारसी और तुर्की समेत कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने फारसी और उर्दू रहस्यमय-रोमांटिक अंदाज में अनगिनत गजलें लिखीं, जो शायरी की मिसाल बन गईं।
ग़ालिब के ऊपर 'एंटी नेशनल ग़ालिब' नाटक लिखने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी दानिश इकबाल का कहना है कि ग़ालिब अपने दौर के इकलौते शायर थे, जिन्होंने कामयाबी की इतनी बड़ी ऊंचाई को छुआ।
नाटककार दानिश कहते हैं, 'ग़ालिब अपनी बेबाकी के लिए भी जाने जाते हैं। कठोर अंग्रेजी शासन के बावजूद उन्होंने बड़ी बेफिक्री से अपनी नज्में लिखीं। ज़िदगी, प्यार मोहब्बत, दुख, खुशी...हर विषय पर लिखा।'
'एंटी नेशनल ग़ालिब' नाटक लिखने पर दानिश कहते हैं, 'हां... ग़ालिब की बेबाकी और हर विषय पर उनकी चलने वाली कलम ने ही मुझे यह नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया।'
जानें ग़ालिब के बारे में
ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। बहुत ही छोटी उम्र में ग़ालिब की शादी हो गई थी। ग़ालिब के सात बच्चे हुए, लेकिन उनमें से कोई भी जिंदा नहीं रहा सका। कहा जाता है कि अपने इसी दुख से उबरने के लिए उन्होंने शायरी का दामन थाम लिया। कहा जाता है कि मिर्ज़ा ग़ालिब की दो कमजोरियों शराब और जुए की लत ने उन्हें तबाह कर दिया।
आखिरकार 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब की मौत हो गई। उनका मकबरा दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन इलाके में बनी निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास ही है।