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साहित्यिक धरोहरः बंद गली के आखिरी मकान का जलवा

Band Gali Ka Akhri Makan हंस के कार्यालय में स्थापित से लेकर नवोदित लेखिकाओं का भी खूब आना जाना होता था। राजेंद्र यादव अपनी आदत के मुताबिक सबसे हंसी मजाक किया करते थे।

By Mangal YadavEdited By: Published: Thu, 10 Oct 2019 12:47 PM (IST)Updated: Thu, 10 Oct 2019 12:47 PM (IST)
साहित्यिक धरोहरः बंद गली के आखिरी मकान का जलवा

नई दिल्ली [अनंत विजय]। मशहूर लेखक धर्मवीर भारती के एक कहानी संग्रह का नाम है 'बंद गली का आखिरी मकान'। धर्मवीर के इस कहानी संग्रह की काफी चर्चा हुई थी। पुस्तक में दिल्ली के दरियागंज इलाके की जिस एक बंद गली के आखिरी मकान की काफी चर्चा हुई थी, वह मकान था साहित्यिक पत्रिका हंस का कार्यालय।

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1990 के बाद के कई वर्षों में ये मकान दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बन गया था। अंसारी रोड के इस मकान में हंस के संपादक और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राजेंद्र यादव बैठते थे। यहीं से वे हंस पत्रिका का संपादन किया करते थे। दोपहर बाद जैसे ही वह दफ्तर पहुंचते साहित्यिक रुचि के लेखकों का जमावड़ा शुरू हो जाता था।

उस जमाने में तो यहां तक कहा जाता था कि जो लेखक दिल्ली आता था, एक बार वह दरियागंज की इस गली में अवश्य आता था। संपादक के कमरे में काम कम अड्डेबाजी ज्यादा होती थी। काम तो पीछे वाले कमरे में सहायक संपादक और बगल वाले कमरे में हंस के सहयोगी स्टाफ करते थे।

देशभर के साहित्यकारों की यहां होती थी चर्चा

यादव जी के कमरे में अनौपचारिक गोष्ठियां हुआ करती थीं। पूरे देशभर के साहित्यकारों की चर्चा होती थी, कौन क्या लिख रहा है, कौन क्या कर रहा है, कहां क्या सेटिंग हो रही है आदि आदि। इन विषयों पर खुलकर चर्चा होती थी। इसी बीच कई रचनाकार अपनी रचनाएं लेकर यादव जी के कमरे में आते जाते रहते थे। राजेंद्र यादव उनसे रचनाएं लेते, उनका हाल चाल पूछते और अगर रचनाकार दिल्ली के बाहर का होता तो उसके शहर के बारे में जानकारी हासिल करते।

दलित विमर्श की शुरुआत

उन दिनों हिंदी साहित्य में ये चर्चा आम थी कि सभी साहित्यिक साजिशें बंद गली के उसी मकान में रची जाती थीं। लेखकों को उठाने गिराने के खेल का ताना-बाना वहीं बुना जाता था। ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ साजिशें ही रची जाती थीं, ये राजेंद्र यादव का एक स्टाइल भी था कि वो इन चर्चाओं से कई रचनात्मक चीजें निकाल लिया करते थे। राजेंद्र यादव ने जब दलित और स्त्री विमर्श की शुरुआत की थी तो उसके पीछे भी हंस कार्यालय में होने वाली अनौपचारिक चर्चाओं का बड़ा हाथ था। उन्हीं चर्चाओं में एक दिन मराठी में दलित साहित्य पर चर्चा हो रही थी तो उसी चर्चा में ये बात निकली कि हिंदी में दलित लेखन की स्थिति क्या है। विमर्श के माहिर राजेंद्र यादव ने फौरन उसमें संभावना भांप ली और तत्काल दलित विमर्श की शुरुआत कर दी।

मकान में अब वो उष्मा नहीं रही

हंस के कार्यालय में स्थापित से लेकर नवोदित लेखिकाओं का भी खूब आना जाना होता था। यादव जी अपनी आदत के मुताबिक सबसे हंसी मजाक किया करते थे। लेखिकाओं की एक टोली के साथ चर्चा से ही स्त्री विमर्श का स्वर प्रसफुटित हुआ था। हिंदी के दो प्रमुख विमर्श दलित और स्त्री विमर्श की शुरुआत अंसारी रोड, दरियागंज की एक गली के आखिरी मकान से हुई थी।

इस मकान ने हिंदी साहित्य की ना केवल बहुत सारी घटनाएं देखी, बल्कि कई लेखक-लेखिकाओं को सफलता के शिखर पर पहुंचते हुए भी देखा। राजेंद्र यादव के निधन के बाद ये मकान तो है, औपचारिक गोष्ठियां भी होती हैं, लेकिन अब वो वैचारिक या रचनात्मक उष्मा नहीं दिखाई देती है। धीरे-धीरे दरियागंज की गली का ये मकान सृजनात्मक रूप से सूना होने लगा है।

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