पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य, जो थे शुद्धाद्वैतवाद के प्रचारक
महाप्रभु वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के महान आचार्य और पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक थे। उन्होंने भारतीय दार्शनिक चिंतन को समन्यव्यात्मक दृष्टि प्रदान की। साथ ही भारतीय धर्म-साधना को नवीन आयाम एवं वैष्णव धर्म की कृष्ण भक्ति धारा को अपूर्व विशिष्टता प्रदान की।
नई दिल्ली [गोपाल चतुर्वेदी]। महाप्रभु वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के महान आचार्य और पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक थे। उन्होंने भारतीय दार्शनिक चिंतन को समन्यव्यात्मक दृष्टि प्रदान की। साथ ही भारतीय धर्म-साधना को नवीन आयाम एवं वैष्णव धर्म की कृष्ण भक्ति धारा को अपूर्व विशिष्टता प्रदान की। वह विष्णु स्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक व प्रचारक थे। उन्होंने शास्त्रार्थ में काशी के अनेक विद्वानों को पराजित किया था। साथ ही वे 'जगदगुरु' के पद से अलंकृत हुए थे।
महाप्रभु वल्लभाचार्य के पूर्वज आंध्र प्रदेश के कांकरखाड़ के निवासी व तैलंग ब्राह्मण थे। उनके माता-पिता जब धर्म-यात्रा पर निकले हुए थे, तब संवत् 1535 की वैशाख कृष्ण एकादशी को इनका जन्म काशी (उत्तर प्रदेश) के निकट हुआ था। इनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट व माता का नाम इलम्मा गारु था। इनका पालन-पोषण काशी में हुआ। वहीं इनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई। इन्होंने रुद्र संप्रदाय के विल्व मंगलाचार्य से अष्टाक्षर गोपाल मंत्र की तथा स्वामी नारायण इंद्र तीर्थ से त्रिदंड संन्यास की दीक्षा प्राप्त की। इनका विवाह प्रख्यात विद्वान श्रीदेव भट्ट की पुत्री महालक्ष्मी के साथ हुआ था। इनके दो पुत्र गोपीनाथ व विलनाथ हुए। इनकी समूची कर्मभूमि ब्रज ही रही। इनका देहावसान संवत् 1588 में हुआ।
महाप्रभु वल्लभाचार्य भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे। वह वेद शास्त्र में अत्यंत पारंगत थे। वह वेद, वेदांत, दर्शन, पुराण व काव्यादि में अपनी छोटी-सी आयु में ही पारंगत हो गये थे। वे वैष्णव धर्म के अलावा जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति के प्रचार के लिए समूचे देश की तीन परिक्रमाएं कीं। उनका यह मानना था कि हम सभी को अपने जीवन का केंद्र व लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण को ही मानना चाहिए, न कि संसार को। सारे संसार को भगवादप्राप्ति का यह मंत्र 'श्रीकृष्ण शरणम मम' उन्हीं के द्वारा प्रदत्त है। उन्होंने कृष्ण भक्ति धारा की दार्शनिक पीठिका तैयार की और देशाटन करके उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया।
उनके समय में उपनिषद, गीता एवं ब्रह्मसूत्र को ही सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। जो व्यक्ति इन पर अपनी टीकाएं लिखता था, वही व्यक्ति आचार्य पद पर आसीन होने का अधिकारी होता था, परंतु महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इस अवधारणा के विपरीत 'प्रस्थान चतुष्टय' का प्रतिपादन किया। साथ ही उन्होंने उक्त तीन ग्रंथों में श्रीमद्भागवत महापुराण को भी संयुक्त किया। इसका मुख्य कारण था उनकी अनन्य कृष्ण भक्ति।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने समाज के अभ्युत्थान और नि:श्रेयश की प्राप्ति, संसार में सर्वांगीण उन्नति एवं पारलौकिक परम सिद्धि के लिए छ: सूत्र प्रतिपादित किए - यथा शक्ति स्वधर्म का आचरण करना, विधर्म से बचना, संयम और अनुशासन पूर्ण जीवन जीना, सभी में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करना, वैराग्यमय जीवन जीना और जो प्रभु इच्छा से हो रहा है, उसमें संतुष्ट रहना। उनका कहना था कि ब्रह्मांड भगवान श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। वह सभी जड़-चेतन में विद्यमान हैं। इस प्रकार उनका भक्ति चिंतन प्रभु और जीव के मध्य एक घनिष्ठ संबंध स्थापित करता है।
महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ हैं-ब्रह्मसूत्र का अणु भाष्य और वृहद भाष्य, श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका, भागवत तत्व दीप निबंध, गायत्री भाष्य, पत्रावलंबन, पुरुषोत्तम सहस्रनाम, दशम स्कंध, अनुक्रमणिका, त्रिविध नामावली, शिक्षा श्लोक, भगवदपीठिका, न्याय देश, सेवाफल वितरण, प्रेमामृत आदि। कहते हैैं कि वल्लभाचार्य ने ही अपने प्रमुख शिष्य भक्त सूरदास से कृष्ण लीला का गायन करवाया। इसके बाद ही महाकवि सूरदास जी ने 'सूरसागर' नामक ग्रंथ की रचना की।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपने एक स्वप्नादेश पर गोवर्धन में पृथ्वी के नीचे से श्रीनाथ जी के विग्रह को निकाल कर अपने शिष्यों के सहयोग से बने भव्य मंदिर में प्रतिष्ठित किया। कालांतर में उनके जीवित न रहने पर यवनों के मूर्ति भंजन के अभियान से बचाकर इस विग्रह को श्रीनाथद्वारा ले जाकर वहां प्रतिष्ठित किया। ब्रज में महाप्रभु वल्लभाचार्य की तमाम बैठके हैं, जिनके दर्शन के लिए श्रद्धालु यहां आते रहते हैं।
(गोपाल चतुर्वेदी आध्यात्मिक विषयों के लेखक हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।