गुरु तेग बहादुर ने बलिदान दे दिया लेकिन औरंगजेब के आगे नहीं झुकाया सिर, पढ़िए सिखों के 9वें गुरु की शौर्य गाथा
Guru Tegh Bahadur Shaheedi Diwas 28 नवंबर को गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस मनाया जाता है। गुरु तेग बहादुर बचपन से निर्भीक स्वभाव के थे। महज 13 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता के साथ मुगल सेना की एक टुकड़ी को पराजित किया था।
नई दिल्ली, जागरण डिजिटल डेस्क। Guru Tegh Bahadur Shaheedi Diwas: भारत के गौरवपूर्ण इतिहास में कई ऐसे क्रांतिकारी पुरुषों का जन्म हुआ, जिन्होंने अपने धर्म, संस्कृति, आदर्शों एवं मूल्यों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी। इन महान पुरुषों में सिखों के 9वें श्री गुरु तेग बहादुर सिंह का नाम भी एक है। गुरु तेग बहादुर को 'हिंद की चादर' भी कहा जाता है। इन्होंने अपने धर्म को बचाने के खातिर अपनी बलि दे दी। 28 नवंबर को गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस मनाया जाता है।
गुरु तेग बहादुर का जन्म अमृतसर में 21 अप्रैल, 1621 को माता नानकी और सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद के यहां हुआ था। बचपन में गुरु तेग बहादुर का नाम त्यागमल था। गुरु तेग बहादुर, गुरु हरगोबिंद साहिब के सबसे छोटे बेटे थे। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने भाइयों से ली थी।
त्यागमल से तेग बहादुर बनने की कहानी
गुरु तेग बहादुर के साहस को लेकर बताया जाता है कि एक बार वह अपने पिता गुरु हरगोबिंद साहिब के साथ करतारपुर की लड़ाई के बाद किरतपुर जा रहे थे। तब उनकी उम्र महज 13 साल की थी। फगवाड़ा के पास पलाही गांव में मुगलों के फौज की एक टुकड़ी ने उनका पीछा करते हुए अचानक हमला कर दिया। इस युद्ध में पिता गुरु हरगोबिंद साहिब के साथ गुरु तेग ने भी मुगलों से दो-दो हाथ किए। छोटी सी उम्र में तेग के साहस और जज्बा ने उन्हें त्याग मल से तेग बहादुर बना दिया।
गुरु हरकृष्ण साहिब जी के बाद बने 9वें गुरु
मार्च, 1632 में गुरु तेग बहादुर की शादी जालंधर के नजदीक करतारपुर में बीबी गुजरी से हुई। इसके बाद वे अमृतसर के पास बकाला में रहने लगे। सिखों के आठवें गुरु, गुरु हरकृष्ण साहिब जी के देहांत के बाद मार्च 1665 में गुरु तेग बहादुर साहिब अमृतसर के गुरु की गद्दी पर बैठे और सिखों के 9वें गुरु बने। गुरु तेग बहादर जी ने कई वर्ष बाबा बकाला नगर में घोर तपस्या की।
देशभर में किया धर्म का प्रचार-प्रसार
गुरु तेग बहादुर ने धर्म के प्रचार-प्रसार व लोक कल्याणकारी कार्य के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपड, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल) पहुंचे। यहां से सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुंचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुंचे और यहां साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया। यहां से प्रयाग, बनारस, पटना, असम गए और आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कार्य किए। इन्हीं यात्राओं के बीच 1666 में गुरुजी के यहां पटना साहिब में पुत्र गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म हुआ, जो सिखों के दसवें गुरु बने।
कश्मीरी पंडितों के लिए मुगलों से किया विद्रोह
गुरु तेग बहादुर के समकालीन मुगल शासक औरंगजेब थे। भारत में औरंगजेब की छवि कट्टर बादशाह के रूप में थी। सिख इतिहास की किताब में दावा किया गया है कि औरंगजेब के शासनकाल में जबरन हिंदूओं का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था। कश्मीरी पंडित इसके सबसे ज्यादा शिकार हुए। कश्मीरी पंडितों का एक प्रतिनिधिमंडल श्री आनंदपुर साहिब में श्री गुरु तेग बहादुर साहिब की शरण में मदद के लिए पहुंचा।
औरगंजेब ने महीनों तक कैद में रखा
गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों को उनके धर्म की रक्षा का आश्वासन दिया और हिन्दुओं को बलपूर्वक मुस्लिम बनाने का खुले स्वर में विरोध किया। साथ ही कश्मीरी पंडितों की इफाजत का जिम्मा अपने सिर ले लिया। उनके इस कदम से औरंगजेब गुस्से से भर गया। उसने इसे गुरु तेग बहादुर की खुली चुनौती मान ली। इतिहासकार बताते हैं कि 1675 में गुरु तेग बहादुर पांच सिखों के साथ आनंदपुर से दिल्ली के लिए चल पड़े। मुगल बादशाह ने उन्हें रास्ते से ही पकड़ लिया और तीन-चार महीने तक कैद में रखकर अत्याचार की सीमाएं लांघ दी।
औरंगजेब के आगे गुरु तेग बहादुर ने नहीं झुकाया सिर
गुरु तेग बहादुर को इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाने लगा। 'सिख इतिहास' किताब के अनुसार, गुरु तेग बहादुर को मारे से पहले औरंगजेब ने उनके सामने तीन शर्तें रखी थीं - कलमा पढ़कर मुसलमान बनने की, चमत्कार दिखाने की या फिर मौत स्वीकार करने की। गुरु तेग बहादुर ने धर्म छोड़ने और चमत्कार दिखाने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि वे अपना सिर कलम करवा सकते हैं, पर अपने बाल नहीं कटवाएंगे।1675 ई॰ में दिल्ली के चांदनी चौक में जल्लाद जलालदीन ने तलवार से गुरु साहिब का शीश धड़ से अलग कर दिया। लाल किले के सामने आज उसी जगह पर गुरुद्वारा शीशगंज साहिब स्थित है।