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Delhi News: दिल्ली की वह लाइब्रेरी जहां सिर्फ पांच पैसे में मिलती थी साल भर की मेंबरशिप

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. पीसी जोशी की दिल्ली से गहरी यादें जुड़ी हुई हैं। वह सालों दिल्ली में रहे और हर मौसम का लुत्फ उठाया। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में जन्में पीसी जोशी का पूरा बचपन दिल्ली में ही गुजरा है।

By Ritika MishraEdited By: Aditi ChoudharyPublished: Fri, 30 Sep 2022 04:35 PM (IST)Updated: Fri, 30 Sep 2022 04:48 PM (IST)
Delhi News: दिल्ली की वह लाइब्रेरी जहां सिर्फ पांच पैसे में मिलती थी साल भर की मेंबरशिप

नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू)  के पूर्व कुलपति प्रो. पीसी जोशी की दिल्ली से गहरी यादें जुड़ी हुई हैं। वह सालों दिल्ली में रहे और यहां के हर मौसम का लुत्फ उठाया। उन्होंने इस दौरान सदी को भी बदलते देखा है। 

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कभी शांति और सुकून का केंद्र थी दिल्ली

दिल्ली से जुड़ी यादों को लेकर वह बताते हैं कि हल्की वर्षा की बौछारों के बीच भीगते हुए दोस्तों के साथ पैदल स्कूल जाना, पतझड़ में पीले पत्तों से पटी सड़कों को घंटों तकना और सर्दी के मौसम में कुड़कुड़ाते हुए सुबह उठना। अहा, क्या यादें थी। एक शांत, सुकून, कम भीड़-भाड़, सहज और आकर्षक का केंद्र थी दिल्ली। आज भी है लेकिन अब भीड़ थोड़ी बढ़ गई है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में जन्में पीसी जोशी का पूरा बचपन दिल्ली में ही गुजरा है। 1962 के आसपास जब करीब छह साल की उम्र में माता-पिता के साथ वे दिल्ली आए थे।

60 प्रतिशत आने पर मिल जाता था दाखिला

यहां पर शाहदरा के पास गांधी मेमोरियल स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया। प्रो पीसी जोशी बताते हैं कि पहले केवल 11वीं तक ही पढ़ाई थी। इसी को हायर सेकेंड्री बोलते थे। 12वीं बहुत बाद में शुरु हुई है। कापियों की चेंकिंग में इतनी सख्ती थी कि 60 प्रतिशत भी मुश्किल से आते थे। सवाल भी ऐसे पूछे जाते थे कि उत्तर देने के लिए बहुत लिखना पड़ता था। जिसके 60 प्रतिशत आ गए समझो उसे कहीं पर भी दाखिला मिल गया।

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डीयू से की स्नातक की पढ़ाई

बकौल पीसी जोशी, मैंने 1972 में 11वीं उत्तीर्ण कर ली थी। सभी को विज्ञान विषय सबसे ज्यादा पसंद था। हर कोई सिर्फ डाक्टर और इंजीनियर बनना चाहता था। कला और वाणिज्य तब कमजोर छात्र ही लेते थे। मैंने डीयू में बीएसएसी आनर्स एंथ्रोपोलाजी में दाखिला लिया था। तब इस कोर्स की कुल 25 सीटें थीं जिसमें से 15 सीटें ही भर पाई थी। डीयू में तो अब सीयूईटी के तहत दाखिला हो रहा है। पहले हायर सेकेंड्री के अंकों के आधार पर मेरिट बनती थी।

समय के साथ बदला बसों का नाम

हिंदू और सेंट स्टीफन कालेज में दाखिला होना थोड़ा मुश्किल होता था। 72 प्रतिशत लाने वाला छात्र दिल्ली टाप कर जाता था। मैं डीटीयू की बस से कालेज जाता था, बाद में डीटीयू बदलकर डीटीसी हो गई। उस समय कार, मोटरसाइकिल या स्कूटर से बहुत कम लोग कालेज आते थे। 97 प्रतिशत लोग पैदल या बसों से सफर करते थे। ये बसें रेलवे स्टेशन के पास से मिलती थी। एक, दो और तीन नंबरों से बसों की पहचान होती थी।

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लोग सहज भाव से बता देते थे बसों को रूट

धीरे-धीरे दिल्ली बढ़ती गई तो बसों की संख्या भी बढ़ा दी हई। फिर बसे केंद्रीय सचिवालय के पास से मिलने लगी। बसों के नंबर में 100 के बाद के रख दिए गए थे। इन बसों में सफर करना और इनके नंबर याद करना भी अलग ही आनंद देता था। कभी नंबर नहीं याद आए या कोई नहीं जगह का बस रूट नहीं पता होता तो लोगों से पूछ लेते। सहजा पूर्वक लोग रूट बताने में लग जाते।

राजधानी दिल्ली के मोहल्लों को बसता देखा

पुरानी दिल्ली के आसपास का इलाका अच्छे से बसा था, लेकिन पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मी नगर, शक्ति नगर ये सब गांव थे। जब भी अशोक विहार जाता था तो रास्ते में बस से ये इलाके पड़ते थे। लगता था कि बस किसी गांव से होकर जा रही हो। कनाट प्लेस के पास बाद में विकास होना शुरू हुआ था।

कभी छात्र झोला लटकाकर आते थे कालेज

जनकपुरी में सबसे बड़ी कालोनी बसाई गई थी। हरि नगर का इलाका दिल्ली के बाहर समझा जाता था। लोग तब बैल बाटम, जींस, कुर्ता-पाजामा पहनकर, झोला लटकाकर और लंबे बाल कर के कालेज जाते थे। ये फैशन का अच्छा दौर था। मैं कालेज की तरफ से दोस्तों के साथ पिकनिक पर बड़खल लेक, सूरजकुंड, चक्रवर्ती लेक, बुद्धा जयंती जाता था। यहां जाकर हम सब साथ में खाना बनाते थे।

याद आते हैं दिल्ली के पुराने दिन

दिल्ली का मौसम भी अच्छा था। तापमान अब की तरह इतना नहीं बढ़ता था। चूंकि पहले हर घर में एसी नहीं था। पंखे ही काफी हुआ करता था। मुझे याद है जब मैं डीयू में था तब गर्मी के दौरान खसखस की चिक बरामदे में लगाई जाती थी। कुछ लोग उस चिक में पानी डालते थे जिससे अंदर का कमरा एकदम ठंडा सा हो जाता था। पहले दिल्ली का मानसून और सर्दियां अच्छी लगती थी। सर्दी में डीयू के पार्क में टहलकर धूप लेना और फिर दोस्तों के साथ बातें करना। बहुत याद आता है ये सब अब। बिजली की समस्या तो अक्सर ही होती थी। हम लोग रोजाना छत पर ही सोने जाते थे, पड़ोसियों से बाते करते-करते कब नींद लग जाती पता ही नहीं चलता।

रात के आठ-नौ बजे तक सुनसान हो जाती थी राजधानी

दिल्ली की नाइट लाइफ की बात करे तो केवल कनाट प्लेस ही एक जगह थी बाकी सब तो रात के आठ-नौ बजे तक बंद हो जाता था। मैं कालेज बंक कर के अपने दोस्त प्रो. विनय श्रीवास्तव जो हिंदू कालेज के प्राचार्य भी बनाए गए बाद में उनके साथ बचपन में सीपी के वेंडर्स और स्टैंडर्ड क्लब और कभी-कभी इंडियन काफी हाउस जाता था। ज्यादातर मनोरंजन के साधन भी नहीं थे तो कभई-कभार रिवोली, रीगल, रम्बा, गीत , चाणक्य सिनेमा में फिल्में भी देखने जाता था।

सिर्फ 10 रुपये में मिली थी सिनेमा हाल में बालकनी की सीट

उस दौर में पीछे की सीट की टिकट 10 रुपये में मिलती थी और मेरी पाकेट मनी 40 से 50 रुपये होती थी। मैं पहले साढ़े 12 रुपये में महीने भर का बस का पास बनाता था। रुपये बचने पर इंडियन काफी हाउस में छुट्टी के दिन डोसा खाने और और काफी पीने जाता था। माह के अंत में अगर 10 रुपये भी जेब में बच जाए तो लगता था कि इससे पूरी दुनिया खरीद लूंगा। कांच की बोतल में दूध आता था। पैकेट तो बहुत बाद में आए।

नई सड़क से किताबें लेना था पसंद

वह दौर भी था जब किताबें खरीदने के लिए नई सड़क बहुत अच्छी थी। कमला नगर में भी एक- दो दुकानें थी। मैं नई सड़क से किताबें लेता था। अब तो जगह-जगह खुल गई हैं। मुझे दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में जाना पसंद था। पांच पैसे में लाइब्रेरी की मेंबरशिप बनती थी। एक बार में यहां से घर के लिए दो किताबें मिल जाती थीं। कपड़े खरीदने के लिए मैं चांदनी चौक जाता था।


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