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    DUSU Chunav भविष्य और प्रतिष्ठा से जुड़ा, मुख्यधारा की राजनीति में पहुंचकर चमक रहे कई सितारे

    Updated: Sat, 20 Sep 2025 08:08 PM (IST)

    दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव भले ही एक विधानसभा चुनाव से छोटा हो पर इसका महत्व अधिक है। छात्र राजनीति मुख्यधारा की राजनीति का प्रवेश द्वार है जहां कई नेता उभरे हैं। डूसू पदाधिकारियों की विश्वविद्यालय प्रशासन में अच्छी धमक रहती है और उन्हें छात्र हित में काम करने के लिए फंड भी मिलता है। एबीवीपी और एनएसयूआइ का दबदबा हमेशा से रहा है।

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    डूसू चुनाव से मुख्यधारा की राजनीति में पहुंचकर चमक रहे कई सितारे।

    स्वदेश कुमार, नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय में जितने छात्र मतदाता हैं, उससे ज्यादा दिल्ली के एक विधानसभा क्षेत्र में वोट पड़ते हैं। इसके बावजूद किसी विधानसभा क्षेत्र के चुनाव से ज्यादा चर्चा दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव की होती है।

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    ऐसा होने के कई कारण हैं। छात्र राजनीति में ही मुख्यधारा की राजनीति का बीच अंकुरित होता है। कुछ बाद में मुरझा जाते हैं तो कई खिलखिला उठते हैं। कई सितारे भी बन जाते हैं। इसके अलावा यह प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ है।

    डूसू पदाधिकारियों की धमक ऐसी रहती है कि कई बार इनकी मांगों के सामने विश्वविद्यालय प्रशासन को भी झुकना पड़ता है। इनके साथ छात्रों का समर्थन होता है। छात्र हित में कार्यों के लिए डूसू को फंड भी मिलता है।

    इस समय दिल्ली की राजनीति में जो सितारा सबसे ज्यादा चमक रहा है, वह भी दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से ही निकला है। मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता 1996-97 में डूसू की अध्यक्ष रही थीं। पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली 1974-75 में डूसू के अध्यक्ष रहे। वह भाजपा के कद्दावर नेताओं में शामिल थे।

    इनके अलावा विजय गोयल, सुधांशु मित्तल, नुपुर शर्मा एबीवीपी के रास्ते भाजपा के बड़े पदों पर पहुंचे। वहीं अजय माकन, अलका लांबा, रागिनी नायक सहित कई नाम ऐसे हैं एनएसयूआई से डूसू के अध्यक्ष बने और फिर कांग्रेस में नाम कमाया।

    यही वजह है कि डूसू चुनाव में प्रचार का रंग मुख्यधारा की राजनीति की तरह ही पकड़ने लगा था। इस पर हाई कोर्ट ने इस बार अंकुश लगाया। इसकी वजह से प्रिंटेड पर्चे विश्वविद्यालय के परिसर से गायब हो गए। इसकी जगह इंटरनेट मीडिया ने ली। लेकिन चुनाव प्रचार में यहां कई बड़े नेता पहुंचे।

    कांग्रेस और भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं ने यहां पहुंचकर अपने-अपने संगठन के प्रत्याशियों के लिए प्रचार किया। डूसू का एक इतिहास यह भी कि यहां एबीवीपी और एनएसयूआई के बीच ही मुकाबला रहा है। वाम समर्थित संगठन यहां अपनी जगह नहीं बना पाए।

    मात्र एक बार 2009-10 में निर्दलीय प्रत्याशी मनोज चौधरी ने डूसू का अध्यक्ष पद जीता था। राजनीतिक भविष्य के साथ डूसू पदाधिकारियों को प्रतिष्ठा भी मिलती है। इनके लिए आर्ट्स फैकल्टी के पास कार्यालय आवंटित होता है।

    इसमें टाइपिस्ट, हेल्पर आदि कर्मचारी भी दिए जाते हैं। ये छात्रों की आवाज होते हैं इसलिए विश्वविद्यालय प्रशासन भी इन्हें गंभीरता से लेता है। बता दें कि इस बार डूसू चुनाव में एबीवीपी के आर्यन मान अध्यक्ष, कुणाल चौधरी सचिव और दीपिका झा संयुक्त सचिव चुने गए हैं। वहीं एनएसयूआई के राहुल झांसला उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं।

    छात्रों के हित में कार्य के लिए मिलता है फंड

    डूसू को हर साल छात्रों के हित में कार्य करने के लिए फंड भी मिलता है। दरअसल छात्रों की फीस में ही इसके लिए प्रविधान होता है। इस फंड को डूसू के साथ कालेज छात्र संघ को भी आवंटित किया जाता है। पिछले वर्ष करीब 25 लाख रुपये का फंड डूसू को मिला था।

    विश्वविद्यालय के कालेजों से 15 काउंसलर चुने जाते हैं। इनके साथ डूसू के चुने गए चारों पदाधिकारियों की एक कमेटी बनती है। इसी कमेटी में कार्यों का प्रस्ताव रखा जाता है और फिर फंड के उपयोग पर मुहर लगती है।

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