Delhi Chunav Result: 15 साल तक दिल्ली में किया राज, अब अस्तित्व की जंग में क्यों फेल हो रही कांग्रेस?
कांग्रेस ने दिल्ली में लगातार 15 साल तक राज किया लेकिन अब वह अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है। तीन विधानसभा चुनावों से पार्टी का खाता भी नहीं खुल पा रहा है। इस बार मत प्रतिशत में थोड़ी वृद्धि हुई है लेकिन फिर भी कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बड़ा खतरा है। आइए जानते हैं कांग्रेस के पतन के मुख्य कारण...
संजीव गुप्ता, नई दिल्ली। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस कांग्रेस ने दिल्ली की सत्ता पर लगातार डेढ़ दशक तक राज किया, वह आज अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है। तीन विधानसभा चुनावों से तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल पा रहा है। मत प्रतिशत लगातार तीन बार से घट रहा था, इस बार थोड़ा सा बढ़ा है।
एक जमाने में जहां 48 प्रतिशत से ज्यादा था, वहीं इस चुनाव में 6.43 प्रतिशत दर्ज किया गया है, लेकिन सच यह भी है कि मजबूती से लड़ने पर कांग्रेस आज भी क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बड़ा खतरा है। इस विधानसभा चुनाव में आप को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में कांग्रेस की भी बड़ी भूमिका रही है।
कैसी रही शीला दीक्षित की सरकार?
पीछे मुड़कर देखें तो मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपने कार्यकाल में राजधानी का खासा विकास किया। जनता ने भी इसे स्वीकारा और सराहा, लेकिन आप के सत्ता में आने के बाद दिल्लीवासियों ने शीला को पूर्णतया नकार दिया।
तीन बार से क्यों नहीं खुल रहा काग्रेस का खाता?
शीला सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आप ने 2013 का चुनाव लड़ा तो इस चुनाव में कांग्रेस को मात्र आठ सीटें मिलीं और उसके बाद हुए तीनों विधानसभा चुनावों में कांग्रेस खाता ही नहीं खोल पाई।
इसकी प्रमुख वजह यह रही कि दिल्ली में कांग्रेस का वोट बैंक जो मुख्यतया झुग्गियों, अनियोजित कॉलोनियों, ग्रामीण इलाकों, अनुसूचित जाति और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में था, वो मुफ्त बिजली-पानी के फेर में उससे छिटककर आप की तरफ चला गया।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान की फाइल फोटो।
2013 में जहां कांग्रेस को 24.68 प्रतिशत मतों के साथ आठ सीटें मिली थीं, वहीं 2015 में यह मत प्रतिशत घटकर 9.07 हुआ तो 2020 में और भी गिरकर 4.63 प्रतिशत तक पहुंच गया। इन दोनों चुनावों में पार्टी का खाता नहीं खुला।
अकेले लड़ने का नहीं मिला खास लाभ
हाल में हुए विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की प्रदेश इकाई ने न सिर्फ न्याय यात्रा निकालकर दिल्ली में अपनी सक्रियता दर्शाने का प्रयास किया, बल्कि पिछले चुनावों के मुकाबले अपने प्रत्याशी भी अपेक्षाकृत मजबूत खड़े किए। यही नहीं, पार्टी आप से गठबंधन कर चुनाव लड़ने के पिछले लोकसभा चुनाव के फ्लाप फैसले को भी दोहराने से बची।
हालांकि, थोड़ी अधिक मेहनत करने और अकेले लड़ने का भी उसे कोई खास लाभ नहीं मिल सका। उसके मत प्रतिशत में करीब दो प्रतिशत की मामूली वृद्धि अवश्य हुई और यह बढ़कर 6.34 हो गया, लेकिन उसके 70 में से 67 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई।
खोया वोटबैंक पाने में क्यों विफल रही कांग्रेस?
पिछले दो विधानसभा चुनाव में आप को एकतरफा वोट दे रहे मतदाताओं का इस बार मोहभंग हुआ तो भी वे अपनी पुरानी पार्टी पर भरोसा न कर भाजपा की ओर चले गए। इस तरह कांग्रेस इस बार भी अपना खोया वोटबैंक वापस पाने की कोशिश में विफल रही। प्रदेश कांग्रेस के कुछ पुराने नेता बताते हैं कि जब पार्टी सत्ता में थी तो संगठन की मजबूती पर ध्यान नहीं दिया गया।
जब सत्ता छिनी तो कार्यकर्ता भागने लगे और संगठन में गुटबाजी बढ़ने लगी। जेपी अग्रवाल, अरविंदर सिंह लवली, अजय माकन, शीला दीक्षित और सुभाष चोपड़ा के अध्यक्षीय कार्यकाल में फिर भी प्रदेश कांग्रेस जैसे तैसे घिसटती रही, लेकिन वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद अनिल चौधरी के अध्यक्षीय काल में बड़े नेताओं ने भी पार्टी को अलविदा कहना शुरू कर दिया।
कांग्रेस के लगातार पिछड़ने के ये हैं प्रमुख कारण
- शीला दीक्षित के बाद संगठन में कोई ऐसा चेहरा नहीं होना, जिसके नाम पर पार्टी आगे बढ़ सके।
- पुराने और समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी। चुनाव के समय टिकट हमेशा बड़े नेताओं को ही दिया जाता रहा है।
- शीर्ष पदाधिकारियों और निचले कार्यकर्ताओं के बीच संवाद नहीं होना।
- जनता की नब्ज पकड़ पाने में विफलता। बहुसंख्यकों की तुलना में अल्पसंख्यकों को तरजीह देना।
- प्रमुख नेताओं का क्षेत्र की जनता से कटाव। अनेकों क्षेत्र से पार्टी का नामोनिशान ही लगभग खत्म।
- प्रदेश अध्यक्ष पर ही सब कुछ छोड़ देना। नेताओं और कार्यकर्ताओं की शिकायतों पर प्रदेश प्रभारी और राष्ट्रीय अध्यक्ष सहित आलाकमान द्वारा संज्ञान न लिया जाना।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।