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    1978 में जब दहली दिल्ली, दोषी रंगा-बिल्ला को दी गई मौत की सजा, फांसी पर लटकाया तो दो घंटे बाद भी जिंदा था रंगा

    By Geetarjun Edited By: Geetarjun
    Updated: Wed, 08 Jan 2025 03:45 PM (IST)

    रंगा-बिल्ला ने 1978 में गीता और संजय चोपड़ा की हत्या कर दी थी। दोनों को 1982 में फांसी दी गई थी। लेकिन हैरानी की बात यह है कि फांसी के 2 घंटे बाद भी रंगा जिंदा था। इस घटना का जिक्र दिल्ली के तिहाड़ जेल के पूर्व कानून अधिकारी सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी द्वारा लिखी गई किताब ब्लैक वॉरंट में किया गया है।

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    गीता और संजय के हत्यारे रंगा और बिल्ला।

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। नेवी अधिकारी के दो बच्चे गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा शाम को 06:15 बजे धौलाकुआं स्थित अपने घर से निकले थे। यह वक्त वर्ष 1978 में अगस्त के महीने का था। दोनों भाई-बहन संसद मार्ग स्थित ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के ऑफिस में कार्यक्रम के लिए जा रहे थे। इस दौरान बारिश का मौसम था।

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    गीता सेकेंड ईयर की छात्रा थी, जो जीसस एंड मैरी कॉलेज में पढ़ती थी। उनको अपने भाई संजय के साथ रात आठ बजे आने वाले युवावाणी कार्यक्रम में शामिल होना था। बारिश के कारण उन्होंने डॉ. एमएस नंदा से सवारी ली, जिन्होंने दोनों को ऑफिस से एक किमी दूर गोले डाकखाना के पास उतार दिया।

    उनके पिता एमएम चोपड़ा भारतीय नौसेना में कैप्टन थे। दोनों बच्चों का कार्यक्रम 9 बजे खत्म होना था और उन्हें दोनों को ऑल इंडिया रेडियो ऑफिस लेने जाना था। यह 26 अगस्त, 1978 का दिन था। इस दिन के बाद से दोनों भाई-बहन कभी ऑफिस नहीं जा पाए और न ही उनके पिता से कभी संपर्क हुआ।

    दो दिन बाद यानी 28 अगस्त, 1978 को पशु चराने वाले ने रिज के घने जंगल में दो लाशें देखीं। यह सड़ चुकी थीं। यह दोनों लाशें गीता और संजय की थीं।

    क्या हुआ था दोनों भाई-बहनों के साथ

    जब गीता और संजय को डॉ. नंदा ने छोड़ा तो वह ऑफिस के लिए पैदल जाने लगे। थोड़ी ही देर बाद वहां फिएट कार पहुंची और उनका अपहरण कर लिया। गोल मार्केट चौराहे पर स्थित बिजली के सामान की दुकान के मालिक ने उस कार में हलचल देखी तो उन्होंने पुलिस को अपहरण की सूचना दी। कार की पिछली सीट से गीता मदद के लिए चिल्ला रही थी। 

    कंट्रोल रूम ने इलाके में गश्त कर रहे वाहनों को वायरलेस अलर्ट भेजा। उसी दौरान एक इसी घटना से संबंधित रिपोर्ट राजिंदर नगर थाने में दर्ज की गई थी। क्योंकि इंजीनियर इंद्रजीत सिंह नोआटो (23) ने लोहिया अस्पताल के पास से उसी कार को गुजरते देखा था। इंद्रजीत स्कूटर पर सवार थे और उन्होंने लड़की की चीखें सुनी थीं।

    उन्होंने जैसे ही चौराहे के पास खड़ी कार के पास अपना स्कूटर रोका तो दोनों भाई-बहन पिछली सीट पर बैठे हुए थे। संजय ने इंद्रजीत को अपनी खून से सनी शर्ट की ओर इशारा किया। इस दौरान कार लालबत्ती पार करके भाग गई। इसके बाद दोनों की लाशें मिलीं।

    कुख्यात रंगा-बिल्ला ने दिया था घटना को अंजाम

    इस घटना को अंजाम कुलजीत उर्फ ​​रंगा खुश और जसबीर सिंह उर्फ ​​बंगाली उर्फ ​​बिल्ला (Ranga and Billa) ने दिया था। वह घटना के बाद से फरार चल रहे थे। दोनों आगरा में थे। इसी दौरान दोनों आगरा स्टेशन के पास कालका मेल ट्रेन में चुपचाप चढ़ गए। यह ट्रेन दिल्ली की ओर जा रही थी। लेकिन जिस डिब्बे में दोनों चढ़े, वह कोच सेना का था। इसी दौरान उनको जवानों ने पकड़ लिया और दिल्ली पहुंचते ही पुलिस के हवाले किया।

    लूट-हत्या की घटनाओं को खूब दिया अंजाम

    रंगा और बिल्ला बेहद खूंखार अपराधी थे। उन्होंने काफी लूट, हत्याएं, समेत तमाम आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिया था। उन्होंने दोनों-बहनों (गीता और संजय) का फिरौती के लिए अपहरण कर लिया। अपहरण के बाद रंगा-बिल्ला को पता चला कि दोनों बहन-भाई एक नौसेना अधिकारी के बच्चे हैं। पकड़े जाने के डर से रंगा और बिल्ला ने दोनों को मार डाला। हैवानियत की हद तो तब हो गई, जब हत्या से पहले गीता चोपड़ा के साथ दुष्कर्म भी किया था।

    कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई, एक फांसी देने के बाद भी था जिंदा

    दिल्ली हाईकोर्ट ने रंगा-बिल्ला को मौत की सजा सुनाई। बाद में सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ने भी मौत की सजा को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने 7 अप्रैल, 1979 को दोनों को फांसी की सजा सुनाई थी। 31 जनवरी, 1982 को दोनों को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। 

    तमाम औपचारिकताओं के बाद घटना के 4 वर्ष बाद दोनों को फांसी पर लटकाया गया। रंगा और बिल्ला को फांसी देने के लिए तिहाड़ प्रशासन की ओर से फरीदकोट और मेरठ जेलों से 2 जल्लादों फकीरा और कालू को बुलाया गया था।

    तिहाड़ की फांसी कोठी में दोनों को फंदे पर लटकाया

    तिहाड़ जेल में 'फांसी कोठी' में एक साथ दोनों को फांसी के फंदे पर लटकाया गया था। हैरानी की बात यह है कि फांसी के 2 घंटे बाद जब नियमानुसार डॉक्टर्स ने जांच की तो बिल्ला तो मर चुका था, लेकिन रंगा की नब्ज चल रही थी। इस बात समेत कई चीजों का जिक्र दिल्ली के तिहाड़ जेल के पूर्व कानून अधिकारी सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी द्वारा लिखी गई किताब 'ब्लैक वॉरंट' में किया गया है।

    इस घटना की चर्चा इसलिए भी की जा रही है, क्योंकि किताब पर आधारित इसी नाम से एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर सीरीज आ रही है।

    फिर कैसे मरा रंगा?

    रंगा और बिल्ला को सुबह फांसी देने के बाद जेल अधिकारियों के साथ वहां मौजूद जल्लादों (फकीरा और कल्लू) ने भी यह मान लिया था कि फांसी के फंदे पर तय समय तक लटकने के बाद रंगा-बिल्ला दोनों ही मर चुके हैं। फांसी को लेकर इतनी निश्चिंतता थी कि इसके बाद अधिकारी, कर्मचारी और जल्लाद समेत सभी लोग वहां से चले गए, क्योंकि इसके बाद की प्रक्रिया 2 घंटे बाद होनी था।

    2 घंटे बाद बाद नियमानुसार जब डॉक्टर फांसी घर में पोस्टमॉर्टम से पहले दोनों के शव की जांच करने के लिए गए तो वहां पर हैरान करने वाली बात सामने आई। चिकित्सक ने नब्ज की जांच में पाया कि बिल्ला तो मर चुका था, लेकिन जब रंगा की नब्ज जांची तो चल रही थी और वह जिंदा था।

    इसके बाद जल्लाद ने रंगा के गले में लगे फंदे को नीचे से फिर खींचा, जिससे उसकी मौत हुई। किताब ब्लैक वॉरंट के अनुसार, रंगा ने मरने से पहले 'जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल' बोला, जबकि बिल्ला रो पड़ा। यही वजह है कि फांसी देने से पहले दोषियों के वजन के बराबर की डमी बनाकर उसका ट्रायल किया जाता है, वह भी कई बार।