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    Delhi: 'श्रीराम जन्मभूमि के लिए निकलते ही कारसेवकों पर बरसने लगी थीं गोलियां, जय श्रीराम का नारा लगाते हुए छिपकर बचाई जान'

    By Ritu Rana Edited By: Geetarjun
    Updated: Wed, 03 Jan 2024 07:58 PM (IST)

    वह रात दो नवंबर 1990 की थी दिंगबर अखाड़े की तरफ जाने वाले अयोध्या के एक मंदिर में सैकड़ों कारसेवकों के साथ मैं भी ठहरा था। मंदिर में मौजूद हर कारसेवक उस रात खुली आंखों से बस यही सपना देख रहा था कि कब सुबह हो और हम लोग राम जन्मभूमि पहुंचकर रामकाज को पूरा करके कारसेवा का लक्ष्य हासिल करें।

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    श्रीराम जन्मभूमि के लिए निकलते ही कारसेवकों पर बरसने लगीं गोलियां, जय श्रीराम का नारा लगाते हुए छिपकर बचाई जान

    जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। वह रात दो नवंबर 1990 की थी, दिंगबर अखाड़े की तरफ जाने वाले अयोध्या के एक मंदिर में सैकड़ों कारसेवकों के साथ मैं भी ठहरा था। मंदिर में मौजूद हर कारसेवक उस रात खुली आंखों से बस यही सपना देख रहा था कि कब सुबह हो और हम लोग राम जन्मभूमि पहुंचकर रामकाज को पूरा करके कारसेवा का लक्ष्य हासिल करें। सुबह हुई तो हम सभी मंदिर की तरफ चल दिए, अभी हम लोग दिगंबर अखाड़े वाली सड़क पर ही थे कि अचानक पुलिस की गोलियां बरसने लगीं। जय श्रीराम के नारे लगाते हुए, जिसे जहां छिपने की जगह मिली छिप गया। मैं भी एक मंदिर में छिप गया, लेकिन वहां भी पुलिस लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर मार रही थी। प्रभु राम की कृपा से किसी तरह मेरी जान बच गई, लेकिन मंदिर में सामने पड़े राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी के मृत शरीर देखकर रूह कांप उठी।

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    यह नजारा देखकर युवा खून जोश से भर उठा और उसी दिन यह कसम खा ली कि अब रामलला को टेंट से निकालकर ही मानेंगे। इसी संकल्प को पूरा करने के लिए छह दिसंबर 1992 को दोबारा हम लोग अयोध्या गए और विवादित ढांचे को ध्वस्त किया। यह संस्मरण सुनाते हुए यमुनापार के नार्थ घोंडा निवासी कारसेवक नीरज सक्सेना भावुक हो उठे।

    उन्होंने कहा कि वर्षों पूर्व देखा गया सपना 22 जनवरी को पूरा होने जा रहा है, यह उनके लिए भगवान राम के वनवास से वापस आने के समान है। उन्होंने इस दिन को दीवाली की तरह मनाने का संकल्प लिया है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद वह प्रभु के दर्शन के लिए अयोध्या भी जाएंगे। 60 वर्षीय नीरज सक्सेना श्रीराम मंदिर आंदोलन के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नार्थ घोंडा ब्रिजलोक शाखा कार्यवाह थे।

    उन्होंने बताया कि उस समय तिलक, कलावा, चोटी व भगवा पहने लोगों को पुलिस ट्रेन से उतारकर पीट रही थी। लेकिन, अयोध्या जाने का संकल्प अटल था, पिता को अयोध्या जाने की जानकारी देकर 23 अक्टूबर 1990 को अवध असम ट्रेन से शाखा के छह स्वयंसेवकों के साथ वह अयोध्या के लिए रवाना हो गए।

    रवानगी में पत्नी बाधा न बन सकें इसलिए उन्हें दादरी में मायके छोड़ आए थे, जबकि मां को कुछ बताया ही नहीं था। ट्रेन में उत्तर प्रदेश पुलिस तिलक, कलावा, सिर पर चोटी, हाथ में ओम का चिह्न और भगवा कपड़े देखते ही लोगों को पीट कर जेल पहुंचा रही थी। बचते-बचाते रात करीब एक बजे गोंडा पहुंचे।

    वहां से पैदल एक गांव से दूसरे गांव होते हुए 30 अक्टूबर 1990 को गोंडा के सरयू पुल पर पहुंचे। वहां पुलिस ने लाठी चार्ज करते हुए ताबड़तोड़ गोलियां चला दीं, इसमें काफी कारसेवक घायल हुए। कुछ पुल से सरयू में कूद गए और कई गोली लगने से वहीं ढेर हो गए। उनके एक साथी के पैर में भी गोली लगी थी, जिसके बाद उसे वापस भेज दिया।

    इसके बाद वह ‘कोटि कोटि हिंदू जन का, हम ज्वार उठाकर मानेंगे, सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’... का जयघोष करते हुए आगे बढ़ गए।

    सरयू पार कराने को प्रभु ने भेज दिया मल्लाह

    पुलिस की गोलियों से बचकर जब सरयू पुल से एक किलोमीटर दूर नदी के पास पहुंचे, तो कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। उसी समय एक मल्लाह दिखाई दिया, ऐसा लगा कि प्रभु राम ने उसे मेरे लिए ही भेजा है। मल्लाह ने बड़े ही प्रेम से नाव पर सरयू पार कराकर अयोध्या पहुंचा दिया। यहां संघ के अधिकारी प्रदीप जैन मिले। सभी कारसेवक एक मंदिर में रुके थे।

    इसके बाद दो नवंबर 1990 को रामलला के दर्शन के लिए वह दिगंबर अखाड़े वाली सड़क से गुजर रहे थे। तभी पुलिस ने रोक लिया तो कारसेवक वहीं बैठकर संकीर्तन करने लगे। पुलिस ने पहले लाठीचार्ज, फिर आंसू गैस के गोले छोड़े। इसके बाद कारसेवकों पर गोली बरसानी शुरू कर दीं, वहां लाशें गिरने लगी।

    अपने साथियों के साथ हम लोग भागकर एक मंदिर में छिपे। पुलिस मंदिर में कारसेवकों को ढूंढ ढूंढकर गोली मार रही थी। उसी मंदिर में सामने राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी दोनों भाइयों के शव देखे तो कलेजा कांप उठा। बचते हुए बाहर निकले तो देखा अयोध्या की पतली-पतली गलियां खून से लाल थीं।

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