Aravalli Illegal Mining: कोर्ट ने पूछा- 128 पर्वतों की श्रृंखला से 31 पहाड़ियां कहां गायब हो गईं, क्या हनुमान जी उठा ले गए? आज तक नहीं मिला जवाब
Aravalli Illegal Mining- अरावली पर्वतमाला के दायरे में विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता है। इनमें से बहुत सारे संसाधनों का वैध-अवैध तरीके से दोहन किया जा रहा है। यहां से निरंतर अवैध खनन की शिकायतें आती रहती हैं।

नई दिल्ली [मनु त्यागी] । Aravalli Illegal Mining- दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले हरियाणा और राजस्थान के एक बड़े भौगोलिक दायरे में अरावली पर्वतमाला स्थित है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक भंडार है जिनका वैध और अवैध तरीके से दोहन होता रहा है। अवैध दोहन को रोकने का कई बार प्रयास भी किया गया है, परंतु माफिया की देख-रेख में यह जारी है। हाल ही में ऐसे ही एक अवैध दोहन के मामले को रोकने के लिए गए एक पुलिस अधिकारी को डंपर से कुचल दिया गया।
यह मामला गंभीर इसलिए भी है, क्योंकि इसमें एक पूरा गिरोह शामिल है। दिनदहाड़े होने वाली इस तरह की घटना में बहुत से लोग शामिल हैं और उन्हें पकड़े जाने का कोई भय नहीं है। पहाड़ी को रौंदकर लूट लेने के बाद भी नहीं पकड़े जाने की प्रवृत्ति, इसी भ्रष्ट तंत्र से ही जन्मी और पली-बढ़ी है। इसीलिए इसने बहुत सारे गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
दरअसल हरियाणा का एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी वाला पूरा क्षेत्र जिसमें गुरुग्राम, फरीदाबाद, नूंह और बहादुरगढ़ का इलाका शामिल है, यहां खनन की गतिविधि पूरी तरह प्रतिबंधित है, लेकिन मजाल है कि कोई रोक सके। दिनदहाड़े पर्वतमाला लुट रही है। विशेषकर नूंह क्षेत्र के तावड़ू से फिरोजपुर ङिारका तक का हिस्सा जो कि राजस्थान से सटा हुआ है। दरअसल इस हिस्से में खनन वैध है।
ज्यादा पुरानी बात नहीं है, इसी के आसपास के क्षेत्र में खनन को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने जब यह पूछा कि आखिर 128 पर्वतों की श्रृंखला से 31 पहाड़ियां कहां गायब हो गईं, क्या हनुमान जी उठा ले गए? अदालत की इस तल्ख टिप्पणी पर किसी से जवाब नहीं देते बना था। क्योंकि पूरे सरकारी अमले के लिए अवैध खनन बिल्कुल अपने ही घर में डकैती डालने देना जैसा ही है।
अपने ही घर में डकैती कराते अधिकारी
नूंह के पचगांव इलाके में जहां यह घटना हुई, मेवात के आसपास के इस इलाके को पुलिस महकमा कालापानी की सजा की तरह देखता था। मतलब वहां स्थानांतरण हुआ तो आप चैन से ड्यूटी नहीं कर पाएंगे। लेकिन आज इसी क्षेत्र में तबादला लेने को सिफारिशें होती हैं और अपने घर में डकैती होने देने वालों की ही तैनाती की जाती है। यहां कानून व्यवस्था में सेंध लगा रहे ऐसे पुलिस सिस्टम का जिक्र इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि डीएसपी सुरेंद्र सिंह जैसे अधिकारी अपनी जान गंवा देते हैं।
लेकिन यदि यह व्यवस्था दुरुस्त होती तो आज डीएसपी भी जिंदा होते और पूर्व में इस तरह का साहस दिखाने वाले पुलिस-प्रशासन के और जांबाज अधिकारी भी हमारे बीच होते। ये कानून की धज्जियां उड़ाने वालों का दुस्साहस ही है जिन्हें उसकी परवाह नहीं है। आखिर समुचित कार्रवाई नहीं हो पाने की वजह से ही तो ऐसा हो रहा है।
यहां सवाल सिस्टम पर भी खड़ा होता है कि वह भी बराबर का जिम्मेदार है। यदि निगरानी करने वाले ही अधिकारी इस डकैती में संलिप्त हैं तो यह सोचा जा सकता है कि वे क्या कार्रवाई करेंगे। खनन क्षेत्रों में थाने-चौकियों से लेकर परिवहन जैसे संबंधित विभागों तक करोड़ों रुपये ‘सुविधा शुल्क’ या कह लीजिए घर में डकैती डालने पर चुप्पी साधे रहने का शुल्क दिया जाता है। अब आती है इस पूरे भ्रष्ट तंत्र की अहम कड़ी यानी सरकार की।
दरअसल सरकार स्वयं को पोर्टफोलियो की तरह ही बनाए रखना चाहती है। लेकिन क्या कभी उन्होंने सत्ता में आने के बाद खुद से सवाल किया कि उनके बनाए कानून कितने काम आ रहे हैं? उन्हें लागू करने की प्रणाली कितनी सक्रियता से जिम्मेदारी निभा रही है? उनके द्वारा बनाई पूरी प्रशासनिक प्रणाली आखिर क्या काम कर रही है?
सरकार खुद को जन कल्याण योजनाओं की घोषणा करने की जिम्मेदारियों तक ही क्यों पेश करना चाहती है? यह सही है कि जन कल्याण उसका उद्देश्य है, लेकिन पूरा सिस्टम व्यवस्थित तरीके से पहियों पर संचालित हो यह भी उसका ही दायित्व है। इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है? डीएसपी की हत्या के बाद भी तो चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, केवल आरोप-प्रत्यारोप से आगे एक कदम नहीं बढ़ाया जा सका?
कुचलने वालों की तलाश और कुछ डंपर जब्त कर इतने बड़े घटनाक्रम पर लीपापोती कर देना नहीं है तो क्या है? क्या हमें इतने फैसले पर चुप्पी साध लेनी चाहिए। दिल दहला देने वाली इस घटना के चार दिन बीत जाने के बाद भी क्या अभी तक खनन के खेल को लेकर कोई ठोस कार्रवाई दिखी? नहीं। दिखनी भी मुश्किल है। हर घटना के बाद जिला, क्षेत्र के अधिकारियों को इधर से उधर करने की खानापूरी करके ही इतिश्री कर ली जाती है। और इस कार्रवाई का कहीं कुछ प्रभाव आज तक दिखा नहीं।
जिसकी प्रवृत्ति ही गलत करने की है तो उससे नैतिक मूल्यों की अपेक्षा स्थान परिवर्तन करने से नहीं की जा सकती। उसकी भ्रष्टाचार की दुकान वहां भी फले-फूलेगी। हां, यह कह सकते हैं कि अभी तक एक स्थान को दूषित करने वाली प्रथा दूसरी जगह भी भ्रष्ट सिस्टम को बढ़ावा दे देगी।
नूंह के आसपास की अरावली खुद गवाही देती है कि कई अधिकारियों को सजा के तौर पर स्थानांतरित किया गया, लेकिन उसके पहाड़ों को, निकलने वाले खनिज तत्व, लौह अयस्क रूपी धन को संरक्षित करने वाला कोई नहीं है। इसे गड़्ढों में तब्दील कर भविष्य के लिए संकट खड़ा करने का क्रम बदस्तूर जारी है।
कड़ी सजा, सख्त संदेश
आखिर गलत दिशा में भटके इस पूरे भ्रष्टचक्र में सुधार कैसे हो। चाहे पुलिस-प्रशासन हो, सिस्टम हो या सरकार और फिर सबसे नीचे तक महत्वपूर्ण कड़ी यानी जनता, दोषी सब हैं। हर स्तर पर नीयत में सुधार की आवश्यकता है। अरावली में अवैध खनन के कारणों में जाएंगे तो कठघरे में कहीं न कहीं जनता भी खड़ी होती है यानी शुरुआत सबसे नीचे से ही होती है। हमारी भौतिक जरूरतों और स्वार्थ ने हमें दूरगामी परिणामों की चिंता से दूर कर दिया है।
घर, दुकान, दफ्तर आदि बनाने के लिए इतनी अंधाधुंध जरूरतें बढ़ती चली गईं कि हम हर इमारत की अवैध नींव रखने के आदी हो चले हैं। दिल्ली एनसीआर में आधी से अधिक आबादी अवैध आवासीय क्षेत्रों में रहती है। बहुत ही छोटे से प्लाट पर कई मंजिल ऊंचा मकान बना लिया जाता है। यहीं से शुरू हुआ यह ‘अवैध’ का क्रम फिर निर्माण सामग्री की आवश्यकता तक पहुंचता है और यह निर्माण सामग्री पहाड़ों को खरोंच कर लाई जाती है।
अरावली की खाल इसीलिए खींची जा रही है, ताकि वहां से पत्थर, बालू, रेत, बजरी, मोरंग आदि को निकाला जा सके। निर्माण की जरूरतों को पूरा किया जा सके। आपूर्ति का यह खेल आज हर जिम्मेदार विभाग, पुलिस प्रशासन और सरकार का लालच बन गया।
किसी दुर्घटना के बाद हमेशा कानून के सिर भी दोष मढ़ दिया जाता है। समय की जरूरत है कि संबंधित नियमों को मनवाने के लिए कोई मैकेनिज्म होना चाहिए। साथ ही उन सभी की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। यह सब एक मुखौटे की भांति दिखाया तो जाता है, लेकिन वास्तविक धरातल पर सब धराशाई हो जाता है, तभी कोई कार्रवाई नजीर नहीं बन पाती। कोई कड़ा संदेश नहीं दे पातीं।
कभी ऐसा सुना है कि अवैध खनन न रोक पाने के लिए किसी डीएम को दो साल के लिए नौकरी से हटा दिया गया, वेतन तक रोक दिया गया? नहीं, जब तक ऐसे सख्त संदेश नहीं दिए जाएंगे और कार्रवाई के रूप में एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरण करके मामला रफा-दफा कर दिया जाएगा तो उससे कुछ सुधरने वाला नहीं है। हमें जवाबदेही तय करनी ही होगी। सरकार को भी नीर-क्षीर तरीके से उनके अनुपालन के लिए प्रयास करने होंगे। साथ ही अदालत में झूठे हलफनामे देना बंद करना होगा।
न्यायपालिका की भूमिका
इस मामले में यदि हम न्यायपालिका की बात करें तो अरावली में अवैध खनन को लेकर सर्वोच्च अदालत ने अब तक कई आदेश दिए हैं। लेकिन इसकी सुस्त प्रक्रिया में तेजी लाने की आवश्यकता है। फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिए फैसले सुनाए जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने फरीदबाद, गुरुग्राम, नूंह आदि क्षेत्रों में अवैध खनन को रोकने के लिए वर्ष 2009 में ही अपना निर्णय सुनाया था। लेकिन वहां आज भी तस्वीर में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।
अवैध खनन भी वैध की तरह पूरी तरह से खुलेआम हो रहा है। जिन स्थानों पर 200 वर्ग फीट का पट्टा खनन को दिया गया, आज वहां दो हजार वर्ग फीट तक खनन करके उसे खोखला बना दिया गया है। इनकी करामातें यहीं नहीं रुकी, जहां गड्ढे हुए उनमें खतरनाक कचरा भरवा दिया गया। मतलब हम पहाड़ को भरभरा कर गिराने के पुख्ता इंतजाम कर रहे हैं। यह सब खतरनाक है।
देश की प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में शामिल अरावली देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों के लिए संजीवनी की भांति है। एक बड़े भौगोलिक दायरे में विस्तृत अरावली पर्वतमाला के माध्यम से दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र को कई प्रकार की भौगोलिक चुनौतियों से संरक्षण प्राप्त है। ऐसे में भौतिक सुखों के लालच में दूर तक फैली हुई इस पर्वतमाला का पर्याप्त रूप से संरक्षण नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं, जब राजस्थान का अंधड़, वहां की रेत सब दिल्ली-एनसीआर के चेहरे पर जमा होगी। रेत भरी आंधियों को बर्दाश्त करने की क्षमता दिल्ली-एनसीआर की नहीं है।
स्मृति पर जोर डालेंगे तो चार-पांच साल पहले राजस्थान की ओर से आया धूल का गुबार याद आएगा जिसे हरियाणा और दिल्ली के करीब आता देख होश उड़े हुए थे। यह सब प्रकृति से छेड़छाड़ के दुष्परिणाम हैं। अरावली पर्वतमाला की लगभग 31 पहाड़ियों को हम खा चुके हैं और अभी आगे बहुत कुछ उसमें से समेट लेना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि पूरे वायुमंडल के लिए हानिकारक है।
अभी गर्मी के मौसम में 44 डिग्री तापमान में शहर झुलस जाते हैं। लू के थपेड़ों से प्राण सूखने लगते हैं। लेकिन अभी जैसे हालात बनाए जा रहे हैं उससे पर्यावरण विशेषज्ञों का चिंतन और निष्कर्ष यही कहता है कि धीरे-धीरे मरुस्थल हमारे शहरों के करीब आता जाएगा। तापमान 50 डिग्री तक पहुंच जाएगा। इस मरुस्थल का विस्तार पूर्व की ओर जारी है। अलवर में पसरती रेत प्रतिवर्ष आधा किमी की गति से मरुस्थल को खिसका रही है।
अगर यह इसी तरह बढ़ता रहा तो यह हरियाणा से आगे बढ़ते हुए दिल्ली-एनसीआर की सीमा में भी प्रवेश कर जाएगा। अगर मरुस्थल के इस विस्तार को सघन पौधारोपण के माध्यम से नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में यहां भी भयावह गर्मी पड़ सकती है।
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