दर्शन और काव्य का अनूठा संगम : आचार्य प्रशांत
आचार्य प्रशांत जो विश्व का सबसे व्यापक भगवद्गीता पाठ्यक्रम चला रहे हैं उनमें छिपे कवि की अभिव्यक्ति उस कोर्स के माध्यम से भी प्रकट होती है। पिछले दो वर्षों से चल रहे इस कोर्स में वे गीता के प्रत्येक श्लोक का सरल काव्यात्मक अर्थ साझा करते हैं। ये ज्ञानवर्धक और सुरीली लघु कविताएँ सोशल मीडिया पर अत्यधिक सराही जा रही हैं।

अनुराग मिश्र। अधिकांश लोग आचार्य प्रशांत को एक उत्कृष्ट वेदांत मर्मज्ञ, प्रखर वक्ता, प्रभावशाली स्तंभकार और राष्ट्रीय बेस्टसेलिंग लेखक के रूप में जानते हैं। साथ ही, वे विश्व के सर्वाधिक फॉलो किए जाने वाले आध्यात्मिक गुरु भी हैं। किंतु, उनकी प्रतिभा का एक और सुंदर आयाम भी है उनका कवि रूप। ‘रात और चाँद’ नामक कविता-संग्रह के प्रकाशन के बाद यह साहित्य जगत में चर्चा का एक विशिष्ट विषय बन चुका है।
‘रात और चाँद’ शीर्षक अपने आप में एक सार्थक प्रतीक है। ये रचनाएँ चाँद की भाँति इस तमोमय संसार में उस स्रोत की ओर संकेत करती हैं, जो स्वयं चाँद को प्रकाशित करता है। उनकी कविताएँ जीवन के गहरे और जटिल सत्य को अत्यंत सरलता और संवेदना के साथ अभिव्यक्त करती हैं।
‘सोने का हक’ संग्रह की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है, जो मन और चेतना के बीच हो रहे भीतरी युद्ध को अद्भुत ढंग से प्रस्तुत करती है। कविता से कुछ अंश:
“मन शांत
सब के सोने पर मेरा एकांत
एक बार फिर वही आदिम नींद
पलकों पर आए एक बार फिर
वही इच्छा मन पर छाए कि सोऊँ
ऐसे कि फिर जागूँ न जगाए...
...जब मेरा सन्नाटा गहरा और गहरा रहा होगा
ठीक तब तुम मुझे आ जगाओगे।
मैं पूछूँगा – किसलिए, मन?
क्या बचा है चेतना के जगत में जो पाना शेष है?...
...पर किसी मुस्कुराते मूर्ख की भाँति
जग मैं जाऊँगा क्योंकि अभी एक प्रश्न रह गया है बाकी—
कि तुम्हारे आने पर नींद से न जागने का
विकल्प मेरे पास है भी या नहीं।”
इस कविता में आचार्य प्रशांत उच्चतम चेतना की उस अवस्था का वर्णन करते हैं, जिसे वे प्राप्त कर सकते हैं—पूर्ण मौन, निरंतर शांति, और मानसिक बंधनों से मुक्ति। लेकिन वे उस दिव्य विश्राम में विलीन नहीं होते, क्योंकि उनके भीतर की असीम करुणा उन्हें पुकारती है कि वे लौटें—उस जगत की ओर जहाँ अब भी कई लोग अचेतन हैं, पीड़ित हैं, और किसी प्रकाश की आवश्यकता में हैं। कवि अपनी निज शांति को स्थगित कर देते हैं ताकि किसी और की चेतना का द्वार खुल सके।
यह भाव स्वयं आचार्य प्रशांत के जीवन में भी स्पष्ट रूप से झलकता है। IIT दिल्ली और IIM अहमदाबाद से शिक्षा प्राप्त करने के बाद, और विश्व के सबसे अधिक अनुसरण किए जाने वाले आध्यात्मिक गुरु होने के बावजूद, वे आज भी विश्व में जागरूकता की लौ जलाने हेतु निरंतर प्रयासरत हैं।
संग्रह की एक और मार्मिक कविता ‘जब गीत न अर्पित कर पाओ’ उन क्षणों की संवेदनशील अभिव्यक्ति है, जब परिस्थितियाँ इस प्रयास में लगी होती हैं कि आप टूट जाएँ, हार मान लें—लेकिन कवि उन्हीं विरोधी ताक़तों को सत्यगीत का माध्यम बना देते हैं:
“पाते स्वयं को विचित्र युद्ध में
रक्षा करते शत्रु जनों की
टूटते न नींद न संग्राम
मोहलत नहीं चार पलों की
इधर भटकते उधर जूझते
गिरते पड़ते आगे बढ़ते
जब गीत न अर्पित कर पाओ
तो ग्लानि न लेना ओ मन
तुम्हारी व्यथित साँसों का
शोर ही संगीत है।”
यह वही भाव है जिसे अयन रैंड के इस वाक्य से समझा जा सकता है:
“सवाल यह नहीं है कि मुझे अनुमति कौन देगा; सवाल यह है कि मुझे रोकने वाला कौन है।”
संदेश स्पष्ट है यदि गीत न भी गा पाएँ, तो क्या हुआ? हमारी साँसों की कंपन, हमारी पीड़ा का स्वर, हमारे प्रयास की आहट यही हमारा संगीत है। और इस संगीत को कोई रोक नहीं सकता।
आचार्य प्रशांत, जो विश्व का सबसे व्यापक भगवद्गीता पाठ्यक्रम चला रहे हैं, उनमें छिपे कवि की अभिव्यक्ति उस कोर्स के माध्यम से भी प्रकट होती है। पिछले दो वर्षों से चल रहे इस कोर्स में वे गीता के प्रत्येक श्लोक का सरल काव्यात्मक अर्थ साझा करते हैं। ये ज्ञानवर्धक और सुरीली लघु कविताएँ सोशल मीडिया पर अत्यधिक सराही जा रही हैं।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।
~ श्रीमद्भगवद्गीता 3.4
काव्यात्मक अर्थ:
न कर्म में प्रवृत्ति से,
न कर्म के परित्याग से
आत्मज्ञान प्राप्त होता है;
नहीं मिलती सिद्धि अंधे कर्म की राह से।
आचार्य प्रशांत द्वारा रचित कविताएं एक जीवंत प्रमाण है कि कविता आज भी सत्य तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम बन सकती है। खासकर गीता के श्लोकों को सरल काव्यात्मक अर्थों में प्रस्तुत करना, आज की पीड़ी को इस शाश्वत ग्रंथ से जोड़ने की एक अद्भुत पहल है।
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