हाफ मैच ट्रांसप्लांट के जरिये दुर्लभ जेनेटिक बीमारी ALD से बचाई बच्चे की जान, इसी रोग हुई थी बड़े भाई की मौत
दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में एक सात वर्षीय बच्चे ने एक्स-लिंक्ड एड्रेनल ल्यूकोडिस्ट्राफी (एएलडी) नामक एक दुर्लभ आनुवंशिक बीमारी को हराया। इस बीमारी के कारण बच्चे के मस्तिष्क में फैटी एसिड जमा हो जाता है जिससे उसकी सीखने सुनने और देखने की क्षमता प्रभावित होती है। बच्चे के पिता हाफ-मैच डोनर बने और 200 दिन बाद बच्चे के स्वास्थ्य में सुधार दिख रहा है।

जागरण संवाददाता, नई दिल्ली: दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में सात वर्षीय बच्चे ने दुर्लभ जेनेटिक बीमारी एक्स लिंक्ड एड्रिनल ल्यूकोडिस्ट्राफी (एएलडी) से जंग जीत ली है।
इस बीमारी में बच्चे का मस्तिष्क फैटी एसिड के जमाव से प्रभावित होता है, जिससे सीखने, सुनने, देखने और संतुलन बनाए रखने की क्षमता प्रभावित हो जाती है। समय पर इलाज न मिलने पर यह घातक है।
इस बच्चे के बड़े भाई की पहले इसी बीमारी से मृत्यु हो चुकी थी, जबकि चाचा भी इससे जूझ रहे हैं। बच्चे को इलाज के लिए डाॅ. रत्ना पुरी और डाॅ. सुनीता बिजारणिया की जेनेटिक्स टीम ने पीडियाट्रिक हेमेटोलाॅजी, आन्कोलाॅजी एवं बोन मैरो ट्रांसप्लांट टीम के पास रेफर किया।
ट्रांसप्लांट की जिम्मेदारी संभालने वाले पीडियाट्रिक हेमेटोलाजिस्ट एवं आन्कोलाजिस्ट डाॅ. मानस कालरा ने बताया कि बच्चे के लिए पूरी तरह मेल खाता हुआ डोनर नहीं मिल सका।
आखिरकार पिता को हाफ-मैच डोनर के रूप में चुना गया। हाप्लोइडेंटिकल ट्रांसप्लांट (आधा मेल) अपने आप में चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है, क्योंकि इसमें रिजेक्शन का खतरा अधिक रहता है।
जीवीएचडी और एडेनोवायरल संक्रमण जैसी गंभीर जटिलताएं
ट्रांसप्लांट के बाद बच्चे को ग्रेड-चार ग्राफ्ट वर्सेस होस्ट डिजीज (जीवीएचडी) हो गई। उसकी त्वचा पर फफोले और पपड़ी उतरने जैसी गंभीर समस्याएं हुईं। यह तब होता है जब शरीर डोनर की कोशिकाओं को बाहरी समझकर हमला करने लगता है।
जीवीएचडी के इलाज के दौरान भी संक्रमण का खतरा बना रहा। बच्चे को एडेनोवायरल संक्रमण हो गया जिसका वायरल लोड लाखों में था। उपलब्ध एंटीवायरल दवाएं भी बेअसर थीं, जिसके चलते उसे अतिरिक्त एक माह तक अस्पताल में रहना पड़ा।
इलाज के लिए बड़ा फंडरेजिंग अभियान
हाफ-मैच ट्रांसप्लांट की लागत लाखों में थी। इलाज और जटिलताओं के प्रबंधन के लिए परिवार को बड़ा फंडरेजिंग अभियान चलाना पड़ा।
इलाज की इस लंबी प्रक्रिया में कई बार उम्मीद की किरण भी धुंधली लगने लगी थी। लेकिन, पिता की अधूरी मेल वाली कोशिकाएं ही बेटे के लिए जीवनदायिनी बन गईं।
200 दिन बाद नई जिंदगी की शुरुआत
आज ट्रांसप्लांट को 200 दिन पूरे हो चुके हैं। रक्त जांच में सौ फीसद डोनर कोशिकाएं दिख रही हैं। बच्चे की तंत्रिका प्रणाली में भी सुधार नजर आ रहा है।
हालांकि डाक्टरों के अनुसार आने वाले कुछ साल उसकी नियमित निगरानी की जाएगी ताकि न्यूरोलाजिकल रिकवरी और रक्त निर्माण का मूल्यांकन होता रहे।
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