गो माता के गोबर से धरती माता की कोख का पोषण
भारत में गो माता व धरती माता दोनों की पूजा की जाती है लेकिन अधिक उत्पादन के लालच व आधुनिकता की दौड़ में कृषि कार्यो में बड़ी-बड़ी मशीनें और जहरीले रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के कारण आज इन दोनों पर खतरा उत्पन्न हो गया है। चारागाह खत्म होने से जहां गायों व अन्य मवेशियों के अस्तित्व पर संकट है वहीं घातक रसायनों व कीटनाशकों ने खेतों में भी जहर घोल दिया है। स्वयंसेवी संस्था भाग्योदय फाउंडेशन ने गाय के गोबर से सस्ती व पर्यावरण हितैषी तरल जैविक खाद बनाने की तकनीक विकसित की है।
अरविद कुमार द्विवेदी, दक्षिणी दिल्ली
भारत में गो माता व धरती माता दोनों की पूजा की जाती है, लेकिन अधिक उत्पादन के लालच व आधुनिकता की दौड़ में कृषि कार्यो में बड़ी-बड़ी मशीनें और जहरीले रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के कारण आज इन दोनों पर खतरा उत्पन्न हो गया है। चारागाह खत्म होने से जहां गायों व अन्य मवेशियों के अस्तित्व पर संकट है वहीं, घातक रसायनों व कीटनाशकों ने खेतों में भी जहर घोल दिया है। स्वयंसेवी संस्था भाग्योदय फाउंडेशन ने गाय के गोबर से सस्ती व पर्यावरण हितैषी तरल जैविक खाद बनाने की तकनीक विकसित की है। इस इफेक्टिव बायो कंपोस्टिग (ईबीसी) प्लांट से तैयार खाद से मिट्टी का पोषण तो बढ़ ही रहा है, युवाओं को कृषि के क्षेत्र में नया रोजगार भी मिल रहा है। सबसे खास बात यह है कि इससे गायों का संरक्षण भी होगा। दरअसल, गाय जब तक दूध देती है तब तक तो हर कोई उसकी देखरेख करता है, लेकिन वह जब दूध देना बंद कर देती है तो लोग उसे सड़क पर भटकने के लिए छोड़ देते हैं। ऐसी बहुत सी गायें सड़क हादसे का शिकार हो जाती हैं। वहीं, ज्यादातर को पशु तस्कर बूचड़खानों में पहुंचा देते हैं। स्वास्थ्य के साथ स्वरोजगार भी मिलेगा उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला निवासी भाग्योदय फाउंडेशन के संस्थापक व अध्यक्ष राम महेश मिश्रा ने बताया कि इस ऑर्गेनिक इंडिया मूवमेंट का मकसद भारत को ऑर्गेनिक राष्ट्र बनाना है। आज अन्न उत्पादन में पंजाब देश का प्रमुख राज्य है। वहां रासायनिक खाद व पेस्टिसाइड का इतना ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है कि धरती जहरीली हो गई है। वहां के बहुत से किसान अपना ही उगाया अन्न खुद नहीं खाते हैं। इसलिए लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि गाय का दूध जिस तरह से हमारे शरीर को निरोग बनाता है वहीं, इसके गोबर व मूत्र से धरती की सेहत सुधारी जा सकती है। दूध से ज्यादा आय उसके गोबर व मूत्र से हो सकती है। इसी सोच व उद्देश्य के साथ दो साल पहले भाग्योदय फाउंडेशन ने यह अभियान शुरू किया था। इसके माध्यम से फाउंडेशन गांवों के साथ ही महानगरों में भी युवाओं को रोजगार दे रहा है।
ठोस खाद व रसोई गैस भी बनेगी
फाउंडेशन की सहगामी संस्था समाधान अभियान की डायरेक्टर अर्चना अग्निहोत्री ने बताया कि फाउंडेशन से जुड़े महेश माहेश्वरी गुजरात में जैविक खेती का अभियान चला रहे हैं। उन्हीं से इस तकनीक का पता चला, तो हमने संपर्क कर ग्रेटर कैलाश स्थित महावीर जी पहाड़ी वाला मंदिर परिसर में दिल्ली-एनसीआर का पहला ईबीसी प्लांट लगवाया। नोएडा के भी एक गांव में प्लांट लगाने की बात चल रही है। अर्चना ने बताया कि मंदिर की गोशाला में 25 गायें हैं। इनमें से तीन गायों के गोबर से लिक्विड जैविक खाद बनाई जाएगी। इन तीनों गायों को भी जैविक चारा दिया जा रहा है , ताकि उनसे उच्च गुणवत्ता वाला गोबर मिल सके। इस प्लांट से रोजाना 100 लीटर लिक्विड जैविक खाद मिलेगी। यह खाद पारदर्शी होती है और इसका ट्रांसपोर्टेशन भी आसान है। खेतों के साथ ही इसका इस्तेमाल घर के गमलों व लॉन या नर्सरी में लगे पौधों में भी किया जा सकेगा। उत्पादन के साथ ही इसकी बिक्री के लिए भी लोगों से संपर्क किया जा रहा है। प्लांट से लिक्विड खाद के साथ ही ठोस खाद व गोबर गैस भी मिलेगी। गैस का इस्तेमाल खाना बनाने व बिजली जलाने में किया जा सकेगा। कैसे तैयार होती है खाद
खाद बनाने के लिए एक ड्रम में पानी में गोबर के साथ सड़े फल व सब्जियां, सहजन की पत्ती या बीज, छाछ, गुड़, कद्दू आदि मिलाया जाता है। फिर इस घोल को पाइप के माध्यम से 3000 लीटर की क्षमता वाले रबर के टैंक में पहुंचाया जाता है। रोजाना यह प्रक्रिया दोहराते हैं। कुछ दिन बाद टैंक भर जाता है तो संस्था द्वारा बनाया गया विशेष कल्चर पाउडर डालकर इसे छोड़ देते हैं। 15 दिन बाद से गोबर गैस मिलने लगती है। वहीं, 50 दिन के बाद से हर दिन 100 लीटर लिक्विड खाद मिलने लगती है। लिक्विड खाद के इस्तेमाल से खेत में नया खरपतवार नहीं होगा, एक ही साल में 600 प्रकार के रसायन व पेस्टिसाइड्स के अवशेष टूट जाते हैं, जिससे भूमि जैविक हो जाती है, 10 से 30 प्रतिशत तक फसल उत्पादन बढ़ता है, भूमि जल संचयन की क्षमता बढ़ती है। देसी गाय के गोबर में 70 हजार से एक लाख माइक्रोव होते हैं इसलिए यह ज्यादा पोषक होता है, जबकि भैंस के गोबर में 20 हजार से 50 हजार माइक्रोव होते हैं।