New fact of film Gandhi: पढ़ें- कौन हैं लुई फिशर, जिनकी वजह से बनी मशहूर फिल्म 'गांधी'
महात्मा गांधी की जीवनी 1951 में प्रकाशित हुई। इसका पहला अध्याय गांधी की हत्या से शुरू होता है। जीवनी बिल्कुल उपन्यास शैली में लिखी हुई है।
नई दिल्ली [विवेक शुक्ला]। जरा एक मिनट के लिए सोचिए कि अगर रिचर्ड एटनबरो ने लुई फिशर लिखित महात्मा गांधी की महान जीवनी को ना पढ़ा होता तो क्या होता। तब 'गांधी' जैसी कालजयी फिल्म बन ही नहीं पाती। इसकी भूमिका एक तरह से 1946 में दिल्ली में ही लिख दी गई थी। हालांकि यह फिल्म 1982 में रीलिज हुई थी। अमेरिकी लेखक लुई फिशर 25 जून, 1946 को दिल्ली आए। जनपथ स्थित इंपीरियल होटल पहुंचे,लेकिन लॉबी में ही अपना समान रख रीडिंग रोड (अब मंदिर मार्ग) के लिए निकल गए। वे वाल्मिकी मंदिर में महात्मा गांधी से मिलने को लेकर काफी उत्साहित थे। दरअसल वे बापू की जीवनी लिख रहे थे।
बापू और फिशर की मुलाकात
उन दिनों सड़कों पर इतनी भीड़ नहीं होती थी, इसलिए वे महज 15 मिनट में ही जनपथ से रीडिंग रोड पहुंच गए। हालांकि तब तक मंदिर मार्ग पूरी तरह से आबाद था। बिड़ला मंदिर, काली बाड़ी, हारकोर्ट बटलर स्कूल, सेंट थामस स्कूल वगैरह थे। फिशर जब वाल्मिकी मंदिर पहुंचे तब वहां पंडित जवाहर लाल नेहरु और मृदुला साराभाई मौजूद थे। थोड़ी ही देर में बापू अपने कमरे से बाहर आए। उन्होंने फिशर को देखते ही पहचान लिया। वे एक दूसरे से अहमदाबाद में मिल चुके थे और उनके बीच अच्छी मित्रता थी। उन्होंने फिशर का हाल-चाल पूछा। दोनों में कुछ देर तक बातचीत होती रही। लुई फिशर ने इन सब बातों का जिक्र 'दि लाइफ ऑफ महात्मा' में किया है। यह जीवनी 1951 में प्रकाशित हुई। इसका पहला अध्याय गांधी की हत्या से शुरू होता है। जीवनी बिल्कुल उपन्यास शैली में लिखी हुई है।
शूटिंग देखने उमड़े हजारों लोग
26 नवंबर, 1980 को शुरू हुई गांधी फिल्म की शूटिंग दरियागंज थाने, इंडिया गेट, संसद भवन समेत दिल्ली की अन्य जगहों पर हुई थी। हजारों की संख्या में लोग शूटिंग देखने के लिए पहुंचते थे। नई दिल्ली में इसका प्रीमियर 20 नवंबर, 1982 को हुआ था। बापू के अंतिम संस्कार के दृश्य को फिल्माने के लिए 3 लाख से अधिक अतिरिक्त कलाकार शामिल किए गए थे। निर्देशक ने खुशवंत सिंह और कुलदीप नैयर जैसे वरिष्ठ लेखकों से बात करने के बाद उस दृश्य को फिल्माया था।
दिल्ली में अंतिम उपवास
9 सितंबर, 1947। शाहदरा रेलवे स्टेशन पर गृह मंत्री सरदार पटेल और स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर आ चुके थे। बापू कलकत्ता (अब कोलकाता) से आ रहे थे। गांधी उस दिन अंतिम बार रेल से दिल्ली आए थे। रेलवे स्टेशन पर ही सरदार पटेल ने उन्हें बता दिया कि अब उनका मंदिर मार्ग/पंचकुइयां रोड की वाल्मिकी बस्ती में ठहरना सुरक्षित नहीं होगा। सरदार पटेल ने उन्हें यह भी बताया कि अब उस बस्ती में पाकिस्तान से आए शरणार्थी ठहरे हैं। पंडित नेहरु भी यही चाहते थे। तब बापू बिड़ला हाउस अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी) पर स्थित बिड़ला हाउस में ठहरने के लिए तैयार हुए। शाहदरा से बिड़ला हाउस तक के सफर में गांधी जी ने जलती दिल्ली को देख लिया था। वे समझ गए थे कि यहां के हालात बेहद संवेदनशील हैं।
सौहार्द्र कायम करने में जुट गए गांधी
बापू दिल्ली आने के बाद सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने में जुट गए। वे 14 सितंबर को ईदगाह और मोतियाखान पहुंचे। ये दोनों स्थान दंगों की आग में झुलस रहे थे। उनहोंने स्थानीय लोगों से शांति बनाने की अपील की। दोनों जगहों पर दोनों संप्रदायों के लोग उन्हें अपनी आपबीती सुनाते हैं। इस दौरान स्थानीय मुसलमान भी उनसे मिलने आते थे। वे भी गांधी से अपनी व्यथा सुनाते थे। तब गांधी ने उनसे कहा था कि मैं दिल्ली में करने या मरने आया हूं।
उपवास का निर्णय
गांधी के सघन प्रयासों के बाद भी जब दंगे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे तब उन्होंने 13 जनवरी, 1948 से अनिश्चितकालीन उपवास शुरू करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने उपवास की घोषणा 12 जनवरी को की। चूंकि गांधी ने मौन धारण कर रखा था, इसलिए उस दिन गांधी की प्रार्थना सभा में एक लिखित भाषण पढ़कर सुनाया गया। कोई भी इंसान जो पवित्र है, अपनी जान से ज्यादा कीमती चीज कुर्बान नहीं कर सकता। मैं आशा करता हूं कि मुझमें उपवास करने लायक पवित्रता हो। उपवास कल सुबह (मंगलवार) पहले खाने के बाद शुरू होगा। उपवास का अरसा अनिश्चित है। नमक या खट्टे नींबू के साथ या इन चीजों के बगैर पानी पीने की छूट मैं रखूंगा। तब मेरा उपवास खत्म होगा, जब मुझे यकीन हो जाएगा कि सब कौमों के दिल मिल गए हैं। और वह बाहर के दबाव के कारण नहीं, बल्कि अपना धर्म समझने के कारण ऐसा कर रहे हैं। और बापू ने 13 जनवरी, 1948 को आमरण अनशन शुरू कर दिया। नि:संदेह गांधी के इस अनशन ने देखते ही देखते दिल्ली की तस्वीर बदलनी शुरू कर दी। हिंसा, कत्लेआम और लूटपाट का दौर थमने लगा। बिड़ला हाउस में रोजाना सैकड़ों लोग पहुंचने लगे। सबकी यही चाहत थी कि बापू अपना अनशन तोड़ लें। 15 जनवरी, 1948 को हुए एक सार्वजनिक सभा में करोल बाग के निवासियों ने गांधी को विश्वास दिलाया कि वे उनके आदर्शों में आस्था रखते हैं। उन्होंने एक शांति ब्रिगेड बनाकर घर-घर जाकर अभियान चलाया। ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह जाकर लोगों को आश्वस्त किया।
दिल्ली के अनेक संगठनों के दर्जनों प्रतिनिधियों, जिनमें हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमाते-उलेमा के सदस्यों के अलावा कई अन्य लोग थे, 18 जनवरी, 1948 को सुबह 11.30 बजे गांधी से मिले और शांति के लिए उन्होंने जो शर्तें रखी थीं, उसे स्वीकार किया और 'शांति शपथ' प्रस्तुत किया। इसके बाद गांधी ने उपवास के अंत की घोषणा की। अपने अंतिम उपवास की सामप्ति के बाद 27 जनवरी, 1948 को वे सुबह ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह गए। दरगाह से जुड़े लोगों से मिले और उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें यहीं रहना है।
दिल्ली-NCR की ताजा खबरें पढ़ने के लिए यहां पर करें क्लिक

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।